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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : XXII आनन्द, 8. तेतली, 9. दशार्णभद्र, 10. अतिमुक्त। उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग है; उसमें द्वितीय वर्ग में ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं इसमें भी धन्य का अध्ययन विस्तृत है। सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण अत्यन्त संक्षेप में ही हैं। स्थानांग में उल्लिखित शेष सात अध्याय वर्तमान औपपातिकसूत्र में उपलब्ध नहीं होते। इससे यह प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ वल्लभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप में आया होगा। जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है इतना निश्चित् है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु न केवल स्थानांग में उल्लिखित उसकी विषयवस्तु से भिन्न है अपितु नन्दी और समवायांग में उल्लिखित विषयवस्तु से भी भिन्न है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान आस्रव और संवरद्वार वाली विषयवस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण सूत्र ई. सन् की पाँचवी-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृत्दशा और अनुत्तरोपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे क्योंकि वह उनके इस परिवर्तित स्वरूप का विवरण देते हैं। अंग आगमों में प्रश्नव्याकरण के पश्चात् विपाकसूत्र का क्रम आता है। विपाकसूत्र की विषयवस्तु सेल सम्बन्धित उल्लेख सर्वप्रथम स्थानांगसूत्र में दस दशाओं में कर्म विपाक दशा के नाम से मिलता है। वहाँ पर इसके निम्न दस अध्ययनों का उल्लेख हुआ हैं : 1. मृगापुत्र, 2 गोत्रास, 3. अण्ड, 4. शकट, 5. ब्राह्मण 6. नन्दिषेण, 7. शोरिक, 8. उदुम्बर, 9. सहस्रोद्दाह आमरक, 10. कुमारलिच्छवी। किन्तु समवायांग में विपाकसूत्र के दो श्रुत स्कन्ध और 20 अध्ययन बताये गये है। वर्तमान में भी दुखविपाक और सुखविपाक - ऐसे दो विभाग उल्लिखित हैं। दुखविपाक के दस अध्ययन निम्न हैं : 1. मृगापुत्र, 2. उज्झितक, 3. अभग्नसेन, 4. शकट, 5. बृहस्पतिदत्त, 6. नन्दिवर्धन, 7. उदम्बरदत्त, 8. शोरिदत्त, 9. देवदत्ता, 10. अंजू। स्थानांग में उल्लिखित नामों से इनकी तुलना करने पर ज्ञात होता है कि मृगापुत्र, शकट, नन्दिषेण (नन्दिवर्धन), शोरिक (शोरिकदत्त), उदुम्बर (उदम्बरदत्त) ये पाँच नाम समान किन्तु कुछ शाब्दिक परिवर्तन के साथ दोनों ग्रन्थों में मिलते है। इनके अतिरिक्त अन्य नामों में स्पष्ट रूप से अन्तर दिखाई देता है किन्तु नामों का यह अन्तर मौलिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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