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________________ 172 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा है। विद्यमान अंगसूत्रों व अन्य आगमों में मुख्य रुप से श्रमण-श्रमणियों के आचारादि का निरुपण ही दिखाई देता है। उपासकदशांग ही एक ऐसा सूत्र है जिसमें गृहस्थ धर्म के संबंध में विशेष प्रकाश डाला गया है। इससे श्रावक के आगमकालीन मूल आचार एवं अनुष्ठान का कुछ पता लग सकता है। श्रमण- श्रमणी के आचार अनुष्ठान की ही भांति श्रावक-श्राविका के आचार- अनुष्ठान का निरुपण भी अनिवार्य है क्योंकि ये चारों ही संघ के समान स्तंभ हैं। तीर्थंकरों द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थ की स्थापना में श्रमण वर्ग की ही तरह श्रावक वर्ग की भी समान भागीदारी मानी जाती है। इनके अभाव में तीर्थ की स्थापना संभव नहीं है। अतः श्रावकों को भी श्रमणों की तरह श्रेष्ठ आचार से युक्त होना आवश्यक है और इसके लिए आचार मर्यादा का निर्धारण अनिवार्य है । इस अंग ग्रंथ में इसी विषय पर विस्तार - से प्रकाश डाला गया है। यद्यपि श्रमण वर्ग श्रावकों के आध्यात्मिक उन्नति के पथप्रदर्शक माने जाते हैं लेकिन उनकी स्वयं की विद्यमानता का आधार यह गृहस्थ वर्ग ही है। यही श्रमणवर्ग हेतु अनिवार्य आवश्यकताओं को सुलभ कराता है। श्रमण वर्ग महाव्रत धारी होने के कारण जीवन रक्षण हेतु वे सारे प्रयत्न नहीं कर सकते हैं. जो श्रावक वर्ग अणुव्रतधारी होने के कारण अपना सकते हैं। लेकिन श्रावकवर्ग को इन सारे प्रयत्नों में अपने सदाचार को दृढ़ रखना चाहिए तथा सम्पूर्ण कार्य न्यायसम्मत ढंग से करना चाहिए। क्योंकि श्रावकधर्म जितना अधिक सदाचार से युक्त होगा श्रमणधर्म की परंपरा उतनी ही अधिक दृढ़ एवं शक्तिशाली होगी। विवेकवान् श्रावक श्रमणवर्ग को अपने कर्त्तव्य से च्युत नहीं होने देता है। वह निरंतर उन्हें साधनापथ पर अग्रसर होते रहने के लिए आलंबन प्रदान करता रहता है। किसी तरह की त्रुटि होने पर श्रावक वर्ग श्रमण को उनसे सावधान करता है। इसका ज्वलंत उदाहरण उपासकदशांग में वर्णित श्रावक आनंद और श्रमण गौतम के अवधिज्ञान संबंधी चिंतन से लिया जाता है। श्रावक वर्ग की उपादेयता, उसके व्रत, आचार संबंधी मान्यता पर प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र अंग ग्रन्थ है। अतः इस रुप में अंग ग्रंथों में इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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