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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 163
ज्ञाताधर्मकथा में प्राप्त इस प्रकार के सांस्कृतिक विवरण तत्कालीन उन्नत समाज के परिचायक हैं। इनसे विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोगों का भी पता चलता है। चिकित्सा के क्षेत्र में सोलह प्रमुख महारोगों और उनकी चिकित्सा के विवरण आयुर्वेद के क्षेत्र में नई जानकारी देते हैं। कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जहाँ इस प्रकार के तेलों के निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन है जो सैंकड़ों जड़ी बूटियों के प्रयोग से निर्मित होते थे। उनमें हजारों स्वर्णमुद्राएँ खर्च होती थी । ऐसे शतपाक एवं सहस्रपाक तेलों का उल्लेख इस ग्रंथ में है। इसी ग्रंथ के बारहवें अध्ययन में जलशुद्धि की प्रक्रिया का भी वर्णन उपलब्ध है जो गटर के अशुद्ध जल को साफ कर शुद्ध जल में परिवर्तित करती है। यह प्रयोग इस बात का प्रतीक है कि संसार में कोई वस्तु या व्यक्ति सर्वथा अशुभ नहीं है, घृणा का पात्र नहीं है ।
व्यापार एवं भूगोल :- प्राचीन भारत में व्यापार एवं वाणिज्य उन्नत अवस्था में थे। देशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापारों में साहसी वणिक पुत्र उत्साहपूर्वक अपना योगदान करते थे। ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रकार के अनेक प्रसंग वर्णित हैं। समुद्रयात्रा द्वारा व्यापार करना उस समय प्रतिष्ठा समझी जाती थी । सम्पन्न व्यापारी अपने साथ पूँजी देकर उन निर्धन व्यापारियों को भी साथ में ले जाते थे, जो व्यापार में कुशल होते थे। समुद्रयात्रा के प्रसंग में पोतपट्टन और जलपत्तन जैसे बन्दरगाहों का प्रयोग होता था। व्यापार के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ जहाज में भरकर व्यापारी ले जाते थे और विदेश से रत्न कमाकर लाते थे। अश्वों का भी व्यापार होता था। इस प्रसंग में अश्व विद्या की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
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धर्मकथा की विभिन्न कथाओं में जो भौगोलिक विवरण प्राप्त होता है वह प्राचीन भारतीय भूगोल के लिए विशेष उपयोग का है। राजगृही" चम्पा,' वाराणसी, द्वारिका, मिथिला, हस्तिनापुर, साकेत, मथुरा, श्रावस्ती, आदि प्रमुख प्राचीन नगरों के वर्णन काव्यात्मक दृष्टि से जितने महत्व के हैं, उतने ही भौगोलिक दृष्टि से भी। राजगृह के प्राचीन नाम गिरिब्रज, वसुमति, बार्हद्रतपुरी, मगधपुर, बराय, वृषभ, ऋषिगिरी, चैत्यक बिम्बसारपुरी और कुशाग्रपुर थे । बिम्बसार के शासनकाल में राजगृह में आग लग जाने से वह जल गई इसलिए राजधानी हेतु नवीन राजगृह
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