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व्याख्याप्रज्ञप्ति : स्वरूप एवं विश्लेषण
- डॉ. माया जैन आगम साहित्य वीतराग वाणी का सार है। जिन्हें अर्थ रुप में प्रतिपादित किया गया है। अर्थ को (तीर्थंकरों के या अर्हतों के भाव को) सूत्रबद्ध करने का कार्य इनके प्रमुख शिष्यों ने किया, जिन्हें गणधर कहा गया वे ज्ञानी थे। उनके सूत्रों को आचार्यों के द्वारा विषय एवं प्रसंग के अनुसार विभाजित किया गया। उस विभाजन में भी आगम साहित्य को श्रुत कहा गया अर्थात् जो गुरूमुख से सुना गया, वह श्रुत है। श्रुत भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के नाम से विख्यात है।
समस्त श्रुतज्ञान का विषय विश्लेषण महावीर के दो सौ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त के राज्य में हुआ था। उस समय मगध में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा जिससे मुनिचर्या कठिन हो गई, फिर भी आगम अर्थात् पूर्व परम्परा से आगत वचनों के सार को सुरक्षित रखने के लिए सर्वप्रथम पाटलीपुत्र में स्थूलभद्राचार्य की अध्यक्षता में वाचना हुई, जिसके परिणाम स्वरूप अंग आगमों का संकलन हुआ। ज्ञान-विज्ञान की अधिकता के कारण आगमों को पूर्व में श्रुत कहा गया और तत्पश्चात् आगम कहे गए, अंतिम वाचना देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वल्लभी में हुई। आगमों को उस समय लिपिबद्ध किया गया। वर्तमान में उपलब्ध अंग, उपांग, छेद-सूत्र, मूल-सूत्र, प्रकीर्णक और चूलिका ग्रंथ का लिखित स्वरूप व्यवस्थित होकर आज प्रकाशित रुप में उपलब्ध हैं।
__ आगम ज्ञान-विज्ञान के अक्षय भंडार है। वे वीतराग प्रभु की वाणी से निश्रित हैं। उनकी भाषा अर्धमागधी है। यह विचार मगध देश में प्रचलित मागधी एवं अन्य प्रदेशों की भाषाओं के प्रभाव से अर्द्धमागधी कहा गया। अर्धमागधी प्राकृत को पूर्व में आर्ष कहा गया, क्योंकि महावीर ने जनता के बीच में जाकर जन-भाषा का आश्रय लिया और उसी जन-भाषा, लोक-प्रचलित भाषा में जो कुछ कहा गया, वह आर्ष कहलाया। मूल भाषा के प्रयोगों में भेद हो जाना, उसमें परिवर्तन हो जाना, मिश्रण हो जाना स्वाभाविक है, परन्तु आगामों के चिंतन, मनन एवं विभिन्न अंशों एवं वाक्यों के प्रयोग से आगमों की
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