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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 137
प्रायश्चित्त के आलोचनादि तीन, छः, आठ, नौ और दस भेद पाँच स्थलों पर वर्णित हैं। जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि पुद्गलों से सम्बन्धीत विवरण सभी दस स्थानों के अन्त में संगृहीत है।
इस प्रकार उक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पुनरावृत्ति के कारण ग्रन्थ की अनावश्यक वृद्धि पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जिन तथ्यों का विवेचन लगभग 10 सूत्रों या सूत्रांशों में हो सकता था उनके लिए दो सौ से ऊपर लगभग 210 सूत्रों का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अनुमानतः 120 सूत्रों की अधिकता स्थानांग में पायी जाती है। स्थानांग में कुल 2831 सूत्र या अनुच्छेद (मधुकरमुनि संस्करण में) उपलब्ध है। इस दृष्टि से स्थानांग में पुनरावृत्त अंशों और समस्त सामग्री का अनुपात 1:25 के लगभग है।
जैसा कि पूर्व में कहां जा चुका है। समवायांग में पुनरावृत्त प्रकरणों की संख्या अत्यल्प है फिर भी कम से कम 70 सूत्र या अनुच्छेद अनावश्यक माने जा सकते हैं।
विभिन्न प्रकरणों से संबंधित पुनरावृत्त स्थलों की विवेचना करने से ज्ञात होता है कि कुछ पुनरावृत्तियाँ युक्तिसंगत हैं। पूर्ववर्ती स्थान में वर्णित विषय के किसी एक भेद के, परवर्ती स्थान में अवान्तर भेद सम्मिलित किये गये हैं जिससे स्वाभाविक रुप से प्रकरण विशेष के भेदों की संख्या में वृद्धि हो गयी है। उदाहरण स्वरुप स्थानांग के छठे स्थान में ज्ञान की दृष्टि से जीव के छः भेद मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी बताये गये हैं- (6/1) इसी प्रकरण के आठवें स्थान में आठ भेद बताये गये है। वहाँ पर पाँच भेद तो पूर्व के समान ही हैं। छठवें भेद अज्ञानी के स्थान पर इसके तीन अवान्तर भेदों मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभंग अज्ञानी को सम्मिलित कर देने से ज्ञान की दृष्टि से जीवों के भेद की संख्या आठ हो गयी है।
इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों की गति-आगति के प्रकरण में दोनों स्थानों के पाँच भेद समान हैं। छठवें स्थान (6/10) के अन्तिम भेद त्रसकायिकों के बदले 9 वें स्थान (9/8) में उसके चार उपभेदों-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की गणना करने से संख्या 9 हो गयी है।
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