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72 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
43/145,146)। आतुर लोग जहाँ स्थान-स्थान पर परिताप देते हैं, वहीं दूसरी ओर देखो कि साधुजन संयम का जीवन जीते हैं। लज्जमाण पुढा पास! (8/17)। ऐसे शांत और धीर व्यक्ति देहासक्ति से मुक्त होते हैं - इह संति गया दविया णावकखंति (42/149)
संक्षेप में महावीर हमें आमंत्रित करते हैं कि हम प्रत्यक्षतः देखें कि संसार में हिंसा के कारण जो आतंक व्याप्त है उसका मूल देहासक्ति में है और इस आसक्ति को समाप्त करने के लिए संयम आवश्यक है। वे इस संदर्भ में साधुओं को लक्षित करते हैं और कहते है कि देखों, उन्होंने किस प्रकार हिंसा से विरत होकर संयम को अपनाया है। ऐसे लोग ही हमारे सच्चे मार्गदर्शक हैं।
क्षण को पहचानो और प्रमाद न करो .
महावीर कहते है कि हे पंडित! तू क्षण को जान-खणं जाणाहि पंडिए (74/24)। ___यह जैन दर्शन का एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है। प्रश्न किया जा सकता है कि यहाँ "क्षण" से क्या आशय है? "क्षण" मनुष्य की यथार्थ स्थिति की ओर संकेत करता है जो कम से कम संतोषजनक तो नहीं ही कहीं जा सकती। यदि हम अपनी और संसार की वास्तविक दशा की ओर गौर करें तो हमें स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि :__ 1. यह संसार परिवर्तनशील है और यह सदैव एक सा नहीं बना रहता।
आज व्यक्ति यौवन और शक्ति से भरपूर है किन्तु कल यही व्यक्ति वृद्ध और अशक्त हो जाएगा। आयु बीतती चली जा रही है और उसके साथ-साथ यौवन भी ढलता जा रहा है- वयो उच्चेइ जोव्वणं च
(72/12) 2. दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है, इसे भी समझ
लेना चाहिए। जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, (74/22)। अतः यह
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