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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 71
का कारण न बने; लेकिन ऐसा वस्तुतः है नहीं, बल्कि इस महाभय को प्रश्रय देने में मनुष्य का योगदान शायद सबसे अधिक ही हो। महावीर संकेत करते हैं कि तनिक आतुर व्यक्तियों को देखो; वे कहीं भी क्यों न हों, हर जगह प्राणियों को परिताप देने से बाज नहीं आते :
तत्थ-तत्थ पुढा पास, आतुरा परितावेंति। (8/15) ये आतुर लोग आखिर हैं कौन? सामान्यतः हम सभी तो आतुर हैं। वह बीमार मानसिकता जो व्यक्ति को अधीर बनाती है वस्तुतः उसकी देहासक्ति है। हम आतुर मनुष्य कहें, आसक्त कहें- बात एक ही है। महावीर कहते हैं, इसलिए आसक्ति को देखो। इसका स्वरुप ही ऐसा है कि वह हमारे शांति के मार्ग में सदैव रोड़ा बनती है, फिर भी हम उसकी ओर खिंचे ही चले जाते हैं
तम्हा संगं ति पासह। गंथेहिं गढिया णरा, विसण्णा कामविप्पिया।
(252/103-109) . महावीर हमें यह देखने के लिए निर्देश देते हैं कि वे लोग जो देहासक्त हैं,
पूरी तरह से पराभूत हैं। ऐसे लोग बार-बार दुःख को प्राप्त होते हैं। वस्तुतः वे बताते हैं, इस जगत् में जितने लोग भी हिंसा-जीवी हैं, इसी आसक्ति कारण से हिंसा जीवी हैं। देह और दैहिक विषयों के प्रति व्यक्ति का लगाव ही हिंसा का कारण है :.. . . पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे।
एत्थ फासे पुणो पुणो। आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एऐसु चेव आरमजीवी।
___(178/13-15) महावीर कहते हैं कि संसार में व्याप्त आतंक और महाभय जिस व्यक्ति ने देख और समझ लिया है, वही हिंसा से निवृत्त होने में सफल हो सकता है (पृष्ठ
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