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________________ पर मतिज्ञान के चौबीस भेद हो जाते है। - विसयाणं विसडणं, संजोगाणंतरं हवे णियमा। अवगहणाणं गहिदे, विसेसकंखा हवे ईहा॥(308) पदार्थ और इन्द्रियों का योग्य क्षेत्र में अवस्थान रूप सम्बन्ध होने पर सामान्य अवलोकन या निर्विकल्प ग्रहणरूप दर्शन होता है और इसके अनन्तर विशेष आकार आदि को ग्रहण करने वाला अवग्रह ज्ञान होता है। इसके अनन्तर जिस पदार्थ को अवग्रह ने ग्रहण किया है उस ही के किसी विशेष अंश को ग्रहण करने वाला ईहा ज्ञान होता है। ईहणकरणेण जदा, सुणिण्णओ होदि सो अवाओ दु। कालंतरे वि णिण्णिदवत्थुसुमरणस्स कारणं तुरियं॥ (309) ईहा ज्ञान के अनन्तर वस्तु के विशेष चिन्हों को देखकर जो उसका विशेष निर्णय होता है उसको 'अवाय' कहते हैं। जैसे भाषा, वेष विन्यास आदि को देखकर “यह दाक्षिणात्य ही है" इस तरह के निश्चय को अवाय कहते हैं। जिसके द्वारा निर्णीत वस्तु का कालान्तर में भी विस्मरण न हो उसको धारणा ज्ञान कहते हैं। __अवग्रह आदि के विषय भूत पदार्थ बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्। (16) बहु More. एक Eka अल्प One in number or unit of quantity. बहुविध of many kinds. एक विध of one kind. क्षिप्र Quick. अक्षिप्र Slow. अनिःसृत Hidden. निःसृत Exposed. अनुक्त unexpressed. 72 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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