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उनकी धारणा शक्ति (स्मरण शक्ति) अधिक हो सकती है।
विषय और विषयी के सम्बन्ध के बाद होने वाले प्रथम ग्रहण को अवग्रह कहते हैं। विषय और विषयी का सन्निपात (सम्बन्ध) होने पर दर्शन होता है। उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह 'अवग्रह' कहलाता है। जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा 'यह शुक्ल रूप हैं' ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों में उसके विषय में विशेष जानने की इच्छा ईहा कहलाती है। जैसे, 'जो शुक्ल रूप देखा है वह क्या वकपंक्ति हैं? इस प्रकार जानने की इच्छा 'ईहा है। विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे 'अवाय' कहते है। जैसे-उत्पतन, निपतन और पंखविक्षेप आदि के द्वारा 'यह वकपंक्ति ही है ध्वजा नहीं है, ऐसा निश्चय होना अवाय है। जानी हुई वस्तु का जिस कारण कालान्तर में विस्मरण नहीं होता उसे 'धारणा' कहते है। जैसे- यह वही वकपंक्ति है जिसे प्रात: काल मैंने देखा था, ऐसा जानना धारणा है। सूत्र में इन अवग्रहादिक का उपन्यास क्रम इनके उत्पत्ति क्रम की अपेक्षा किया है। तात्पर्य यह है कि, जिस क्रम से ये ज्ञान उत्पन्न होते हैं उसी क्रम से इनका सूत्र में निर्देश किया है। - गोम्मट्टसार जीवकांड में कहा भी गया है
अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहयमणिंदिइंदियजं। अवगहईहावायाधारणगा
होंतिपत्तेयं ।(306)
[गोम्मटसार जीवकाण्ड] __ इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) की सहायता से अभिमुख और नियमित • पदार्थ को 'अभिमुख' कहते हैं। जैसे-चक्षु का रूप नियत है इस ही तरह जिस-2 इन्द्रिय का जो-2 विषय निश्चित है उसको नियमित कहते है। इस तरह के पदार्थों का मन अथवा स्पर्शन आदिक पाँच इन्द्रियों की सहायता से जो ज्ञान होता है उसको ‘आभिनिबोधक मतिज्ञान' कहते हैं। इस प्रकार मन और इन्द्रिय रूप सहकारी निमित्तभेद की अपेक्षा से मतिज्ञान के छह भेद हो जाते हैं। इसमें भी प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार-2 भेद हैं। प्रत्येक के चार-2 भेद होते हैं, इसलिए छह को चार से गुणा करने
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