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________________ ये एकार्थ वाची नाम हैं। _ मन को नो इन्द्रिय या अनिन्द्रिय कहते हैं। यहाँ अनिन्द्रिय का अर्थ निषेधपरक नहीं है परन्तु किञ्चित् अर्थ में है। यथा “ईषदर्थस्यनत्र-प्रयोगात्" नका प्रयोग 'ईषद' अर्थ में किया है। ईषत् इन्द्रिय अनिन्द्रिय। यथा अनुदरा कन्या। इस प्रयोग में जो अनुदरा शब्द है उससे उदरका अभाव रूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। ये इन्द्रियां निश्चित देश में स्थित पदार्थों का विषय करती हैं और कालान्तर में अवस्थित रहती हैं। किन्तु मन इन्द्रिय का लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता। इसे अन्त:करण कहा जाता है। इसे गुण और दोषों के विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती तथा चक्षु आदि इन्द्रियों के समान इसकी बाहर उपलब्धि भी नहीं होती। इसलिए यह अनागत करण होने से अन्त:करण कहलाता है। इसलिए अनिन्द्रिय में नत्र का निषेध रूप अर्थ न लेकर 'ईषद्' अर्थ लिया गया हैं। मतिज्ञान के भेद अवग्रहहावायधारणाः। (15) अवग्रह Avagraha or perception. . ईहा Conception. आवाय Judgement. ETRUTT Retention. अवग्रह, ईहा, आवाय और धारणा ये मतिज्ञान के चार भेद है। __इस सत्र में ज्ञान प्राप्ति के मनोवैज्ञानिक प्रणाली का वर्णन किया गया है। किसी भी विषय के धारणा रूपी ज्ञान के लिये किन-किन मनोवैज्ञानिक प्रणालियों से गुजरना पड़ता है उसका वर्णन किया गया है। विद्यार्थियों को इस सूत्र में प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक प्रणाली से अध्ययन करना चाहिये जिससे 70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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