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दिन या रात्रि में कारण के बिना ही जो स्वतः प्रतिभास हो जाता है वह प्रतिभा है । जैसे प्रातः मुझे इष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी या कल मेरा कोई इष्ट सम्बन्धी आयेगा आदि ।
अर्थग्रहण करने की शक्ति को 'बुद्धि' कहते हैं । पाठग्रहण करने की शक्ति का नाम 'मेधा' है।
कहा भी है- आगमाश्रितज्ञान मति है। बुद्धि तत्कालीन पदार्थ का साक्षात्कार करती है। प्रज्ञा अतीत को तथा मेधा त्रिकालवर्ती पदार्थों का परिज्ञान करती है। नवीन-नवीन उन्मेषशालिनी प्रतिभा है।
मतिज्ञान की उत्पत्ति का कारण और स्वरूप तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । ( 14 )
It is acquired by the help of the इन्द्रिय senses and अनिन्द्रिय ie, mind. वह मतिज्ञान इन्द्रिय और मन रूप निमित्त से होता है । मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम, नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम के साथ-साथ इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है उसे 'मतिज्ञान' कहते
है।
'इन्द्र' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है 'इन्दतीतिइन्द्रः' जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इन्द्र है। 'इन्द्र' शब्द का अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षय के रहते हुए स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है अतः उस पदार्थ केने में जो लिंग (निमित्त ) होता है वह इन्द्र का लिंग इन्द्रिय कही जाती है । अथवा जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार 'इन्द्रिय' शब्द का यह अर्थ हुआ कि, जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में लिंग अर्थात् कारण है उसे 'इन्द्रिय' कहते है, जैसे लोक में धूम, अग्नि का ज्ञान कराने में कारण होता है। इसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण कर्त्ता आत्मा के अभाव में नहीं हो सकते हैं अतः उनसे ज्ञाता का अस्तित्व पाया जाता है। अथवा इन्द्र शब्द नामकर्म का वाची है । अत: यह अर्थ हुआ कि, उससे रची गई इन्द्रिय है। वे इन्द्रियाँ स्पर्शनादिक है । अनीन्द्रिय, मन और अन्त:करण
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