SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5. केवलज्ञान णाणं णेयणिमित्तं केवलणाणं ण होदि सुदणाणं। णेयं केवलणाणं णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो॥(5) केवलज्ञान घटपट आदि जानने योग्य पदार्थो के आश्रय से नहीं उत्पन्न होता है इसलिये वह जैसे ज्ञेय पदार्थों के निमित्त से नहीं होता है वैसे ही श्रुतज्ञानरूप भी नहीं है। यद्यपि दिव्यध्वनि के समय में इस केवलज्ञान के आधार से गणधर देव आदिकों के श्रुतज्ञान होता है तथापि वह श्रुतज्ञान गणधरदेवादि को ही होता है। केवली अरहन्तों के नहीं है। केवली भगवान के ज्ञान में किसी सम्बन्ध में ज्ञान व किसी में अज्ञान नहीं होता है, किन्तु सर्व ज्ञेयों का बिना क्रम के ज्ञान होता है अथवा मतिज्ञान आदि भेदों से नाना प्रकार का ज्ञान नहीं है किन्तु एक मात्र शुद्ध ज्ञान ही है। यहाँ जो मतिज्ञान आदि के भेद से पाँच ज्ञान कहे गये हैं वे सब व्यवहारनय से हैं। निश्चय से अखंड एक ज्ञान के प्रकाश रूप ही आत्मा है जैसे मेघादि रहित सूर्य होता है, यह तात्पर्य है। प्रमाण का लक्षण और भेद. तत्प्रमाणे। (10) They (i.e. five kinds of knowledge are) the two 9AT0T (and no others.) वह पाँचों प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप है। “सम्यक् ज्ञानं प्रमाणम्।” अर्थात् जो ज्ञान सम्यक् अर्थात् समीचीन (यथार्थ) है वही ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान को समीचीन होने के लिए ज्ञान सम्बन्धी जो दोष हैं, उससे ज्ञान को रहित होना चाहिए। इसका प्रतिपादन प्रमेयरत्नमाला में निम्न प्रकार किया हैप्रकर्षेण संशयादि व्यवच्छेदेनमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणं। जिसके द्वारा प्रकर्ष से अर्थात् संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय के व्यवच्छेद (निराकरण) से वस्तुतत्त्व जाना जाय वह प्रमाण कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy