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________________ तार्किक चूड़ामणि समन्तभद्र स्वामी ने भी सम्यग्ज्ञान का लक्षण अग्र प्रकार कहा है अन्यूनमनतिरिक्तं, याथातथ्यं बिना च विपरीतात्। निःसन्देहं वेद, यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः॥ (42,र.श्रा.पृ.32) जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता, अधिकता, विपरीतता और सन्देह रहित जैसा को तैसा जानता है वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता हैं। संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु॥ (42 द्र.सं.पृ.142) आत्मस्वरूप और परपदार्थ के स्वरूप का जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) और विभ्रम (विपर्यय) कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग् ज्ञान कहलाता है। यह आकार (विकल्प) सहित है और अनेक भेदों का धारक जाणइ तिकालविसए, दव्वगुणे पज्जए य बहुभेदे। पच्चक्खं च परोक्खं, अणेण णाणं त्ति णं वेंति॥ (299 गो.जी.पृ.160) :: जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष। परोक्ष प्रमाण के भेद __आद्ये परोक्षम्। (11) The first two kinds of knowledge, i.e. Afa sensitive and a Scriptural knowledge, are te Paroksha i.e., Indirect or mediate. प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण है। 65 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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