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________________ को छोड़कर उपलब्धि तथा उपयोग स्वरूप है। अवधिज्ञान की शक्ति सो उपलब्धि है, चेतन की परिणति का उधर झुकना सो उपयोग है तथा उसके तीन भेद और भी जानो-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि। किन्तु इन तीनों में से परमावधि और सर्वावधि ज्ञान उन चरमशरीरी मोक्षगामी मुनियों के होता है जो चैतन्य भाव के उछलने से पूर्ण व आनन्दमय परम सुखामृत रस के आस्वादरूप परम समरसी भाव में परिणमन कर रहे हैं। जैसा कि वचन है “परमोही सव्वोही चरमशरीरस्य विरदस्य" ये तीनों ही अवधिज्ञान विशेष सम्यग्दर्शन आदि गुणों के कारण नियम से होते हैं तथा जो भव प्रत्यय अवधि है अर्थात् जो देव नारकियों के जन्म से होनेवाली अवधि है वह नियम से देशावधि ही होती है यह अभिप्राय है। 4. मनः पर्ययज्ञान विउलमदीपुणणाणं अज्जवणाणं च दुविह मणणाणं। एदे संजमलद्धी उवओगे अप्पमत्तस्स ॥(4) यह आत्मा मन:पर्यय ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम होने पर दूसरे के मन में प्राप्त मूर्त वस्तु को जिसके द्वारा प्रत्यक्ष जानता है वह मनः पर्यय ज्ञान है। उसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। इनमें विपुलमति मन:पर्ययज्ञान दूसरे के मन में प्राप्त पदार्थ को सीधा (सरल)व वक्र दोनों को जानता है जबकि ऋजुमति मात्र सीधे (सरल विषय) को ही जानता है। इनमें से विपुलमति उन चरमशरीरी मुनियों के ही होता है जो निर्विकार आत्मानुभूति की भावना को रखने वाले हैं। तथा ये दोनों ही उपेक्षा संयम की दशामें संयमियों के ही होते हैं और केवल उन मुनियों के ही होते हैं जो वीतराग आत्मतत्त्व के . . सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र की भावना सहित, पन्द्रह प्रमाद रहित अप्रमत्त गुणस्थान के विशुद्ध परिणाम में वर्त रहे हों। जब यह उत्पन्न होता है तब अप्रमत्त सातवें गुणस्थान में ही होता है, यह नियम है। फिर प्रमत्त के भी बना रहता है, यह तात्पर्य है। 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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