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चिन्तवन करना सो भावना मतिज्ञान है । यही मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, आवाय, धारणा के भेद से चार प्रकार हैं। अथवा कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि, पदानुसारी बुद्धि और संभिन्न श्रोतृता बुद्धि के भेद से भी चार प्रकार हैं। यह मतिज्ञान सत्ता अवलोकनरूप दर्शनपूर्वक होता है।
2. श्रुतज्ञान
सुदणाणं पुणणाणी भांति लद्धीय भावणा चेव । उवओग णयवियप्पं णाणेण य वत्थु अत्थस्स || (2)
वही आत्मा जिसने मतिज्ञान से पदार्थ को जाना था, जब श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर जो मूर्त और अमूर्त पदार्थों को जानता है उसको : ज्ञानीजन श्रुतज्ञान कहते हैं। वह श्रुतज्ञान जो शक्ति की प्राप्ति रूप है सो लब्धि है, जो बार - बार विचार रूप है सो भावना है। उसी के उपयोग और नय ऐसे भी दो भेद हैं। 'उपयोग' शब्द से वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण जान लेना चाहिये तथा 'नय' शब्द से वस्तु के एक देश को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय मात्र लेना चाहिये, क्योंकि कहा है- "नयो ज्ञातुरभिप्रायः " कि नय ज्ञाता का अभिप्राय मात्र है। जो गुणपर्याय रूप पदार्थ का सर्व रूप से जानना सो प्रमाण है और उसी के किसी एक गुण या किसी एक पर्याय मात्र को मुख्यता से जानना सो नय हैं। यहाँ यह तात्पर्य है कि ग्रहण करने योग्य परमात्मतत्व का साधक जो विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव रूप शुद्ध आत्मीक तत्व का सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व आचरण रूप जो अभेद रत्नत्रयरूप भावश्रुत है सो निश्चयनय रूप से ग्रहण करने योग्य है और व्यवहारनयसे इसी भावश्रुतज्ञान के साधक द्रव्यश्रुत को ग्रहण करना चाहिये ।
3. अवधिज्ञान
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ओहिं तहेव घेप्पदु देसं परमं च ओहिसव्वं च । तिणिवि गुणेण णियमा भवेण देसं तहा णियदं ॥ ( 3 )
जो अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर मूर्तिक वस्तुको प्रत्यक्ष रूपसे जानता है वह अवधिज्ञान है। जैसे पहले श्रुतज्ञान को उपलब्धि भावना तथा उपभोग की अपेक्षा तीन भेद से कहा था वैसे यह अवधिज्ञान भावना
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