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प्रत्यक्षं तभ्दगवतामहतां तैः प्रभाषितम्।
गृह्यतेऽस्तीत्यत: प्राज्ञैर्न च छद्मस्थपरीक्षया॥540 मुक्त जीवों का वह सुख अर्हन्त भगवान् के प्रत्यक्ष है तथा उन्हीं के द्वारा उसका कथन किया गया है इसलिये 'वह है' इस तरह विद्वज्जनों के द्वारा स्वीकृत किया जाता है, अज्ञानी जीवों की परीक्षा से वह स्वीकृत नहीं किया जाता।
कुन्दः कुन्द देव ने पंचास्तिकाय में कहा भी है, सिद्धत्व अवस्था में जीव के स्वाभाविक गुणों का अभाव नही होता है, परन्तु स्वाभाविक गुण पूर्ण शुद्ध रूप से पूर्ण विकसित होकर अनन्त काल तक विद्यमान रहते हैं। यथा
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स। ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा॥(35)
पृ.(128) सिद्धों के वास्तव में द्रव्यप्राण के धारण स्वरूप से जीव स्वभाव मुख्य रूप से नहीं है, जीव स्वभाव का सर्वथा अभाव भी नहीं है, क्योंकि भावप्राण के धारणस्वरूप जीव स्वभाव का मुख्य रूप से सद्भाव है। और उन्हें शरीर के साथ नीरक्षीर की भांति एकरूप वृत्ति नहीं है, क्योंकि शरीर संयोग के हेतु भूत कषाय और योग का वियोग हो गया है इसलिये वे अतीत अनन्तर शरीर प्रमाण अवगाहरूप परिणत होने पर भी अत्यन्त देह रहित हैं। और वचनगोचरातीत उनकी महिमा है, क्योंकि लौकिक प्राण के धारण बिना और शरीर के सम्बन्ध बिना सम्पूर्ण रूप से प्राप्त किये हुए निरूपाधि स्वरूप के द्वारा वे सतत् प्रतपते
जादो सयं स चेदा सव्वण्ह सव्वलोगदरसी य। पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं । सगममुत्तं ॥(29)
पृष्ठ न.(114) वह चेतयिता (आत्मा) सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी स्वयं होता हुआ, स्वकीय अमूर्त अव्याबाध अनंत सुख को प्राप्त करता है।
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