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उदय से इन्द्रियों के इष्ट पदार्थों से उत्पन्न हुआ सुख होता है। यहाँ विपाक-कर्मोदय में सुखशब्द का प्रयोग है। और कर्मजन्यक्लेश से छुटकारा मिलने से मोक्ष में उत्कृष्ट सुख होता है। यहाँ मोक्ष अर्थ में सुख का प्रयोग है।
मुक्तजीवों का सुख सुषुप्त अवस्था के समान नहीं है
सुषुप्तावस्थया तुल्यां केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम्। तदयुक्तं क्रियावत्त्वात्सुखातिशयतस्तथा ॥500 श्रमक्लेममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात्। . मोहोत्पत्तिर्विपाकाच्च दर्शनध्नस्य कर्मणः ।।51॥ ..
कोई कहते हैं कि निर्वाण सुषुप्त अवस्था के तुल्य है परन्तु उनका वैसा कहना अयुक्त हैं-ठीक नहीं है क्योंकि मुक्तजीव क्रियावान् है जबकि सुषुप्तावस्था में कोई क्रिया नहीं होती तथा मुक्तजीव के सुख की अधिकता है जबकि सुषुप्त अवस्था में सुख का रञ्चमात्र भी अनुभव नहीं होता। सुषुप्तावस्था की उत्पत्ति श्रम, खेद, नशा, बीमारी और कामसेवन से होती है तथा उसमें दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मोह की उत्पत्ति होती रहती है जबकि मुक्तजीव के यह सब संभव नहीं है। मुक्तजीव का सुख निरूपम है।
लोकेतत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्पन्यो न विद्यते। उपमीयेत तद्येन तस्मानिरूपमं स्मृतम् ॥52।। लिङ्गप्रसिद्धेः प्रामाण्यमनुमानोपमानयोः।
अलिङ्गं चाप्रसिद्धं यत्तेनानुपमं स्मृतम् ॥3॥
समस्त संसार में उसके समान अन्य पदार्थ नहीं है जिससे कि मुक्तजीवों के सुख की उपमा दी जा सके, इसलिये वह निरूपम माना गया है। लिङ्ग अर्थात् हेतु से अनुमान में और प्रसिद्धि से उपमान में प्रामाणिकता आती है परन्तु मुक्तजीवों का सुख अलिङ्ग है-हेतुरहित है तथा अप्रसिद्ध है इसलिये वह अनुमान और उपमान प्रमाण का विषय न होकर अनुपम माना गया है।
अर्हन्त भगवान् की आज्ञा से मुक्तजीवों का सुख माना जाता है।
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