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जं जस्स दु संठाणं चरिमसरीरस्स जोगजहणम्मि। तं संठाणं तस्स दु जीवघणो होई सिद्धस्स॥
(2129 अ.10.सू.पष्ट 900 भग.आ.) दसविधपाणाभावो कम्माभावेण होइ अच्चंतं। .
अच्चंतिगो य सुहदुक्खाभावो विगददेहस्स ॥(2130) मन वचन काययोगों का त्याग करते समय अयोगी गुणस्थान में जैसा अन्तिम शरीर का आकार रहता है उस आकाररूप जीव के प्रदेशों का, घनरूप सिद्धोंका आकार होता है।
सिद्ध भगवान के कर्मों का अभाव होने से दस प्रकार के प्राणों का सर्वथा अभाव है। तथा शरीर का अभाव होने से इन्द्रिय जनित सुख दुःख का अभाव है।
जं णत्थिं बंधहे, देहग्गहणं ण तस्स तेण पुणो।
कम्मकलुसो हु जीवो कम्मकदं देहमादियदि ॥(2131)
मुक्त जीव के कर्म बन्ध का कारण नहीं है। अत: वह पुनः शरीर धारण नहीं करता। क्योंकि कर्मों से बद्ध जीव ही कर्मकृत शरीर को धारण करता
कज्जाभावेण पुणो अच्चंत्तं णत्थि फंदणं तस्स।
ण पओगदो वि फंदणमदेहिणो अत्थि सिद्धस्स ॥(2132) सिद्ध जीवों के कुछ करना शेष न होने से उनमें हलन चलन का अत्यन्त अभाव है। और वे शरीर रहित हैं। अत: वायु आदि के प्रयोग से भी उनमें हलन चलन नहीं होता।
कालमणंतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढो।
सो उवकारो इट्टो ठिदिसभावो ण जीवाणं ॥(2133) सिद्ध जीव जो अनन्तकाल तक आकाश के प्रदेशों को अवगाहित करके ठहरा रहता है सो यह अवस्थान रूप उपकार अधर्मास्तिकाय का माना गया है; क्योंकि जैसे जीवका स्वभाव चैतन्य आदि है उस प्रकार जीव का स्वभाव
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