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एक साथ असंख्यात संयमस्थानों को प्राप्त होते हैं। उसके आगे पुलाक की व्युच्छित्ति हो जाती है, अर्थात् संयमलब्धि की अधिक विशुद्धि होने से पुलाक भाव वाले मुनि नहीं रहते। उसके आगे मायकुशील असंख्यात संयमस्थानों को अकेला ही प्राप्त होता है। उसके आगे कषायकुशील प्रतिसेवनाकुशील और बकुश एक साथ असंख्यात संयमस्थानों को प्राप्त होते हैं, उसके आगे बकुश रूप परिणामों की व्यच्छिति हो जाती है। उसके आगे भी असंख्येय संयमस्थान (परिणामों की विशुद्धि) को प्राप्त होकर कषायमन्द हो जाने से प्रतिसेवना कुशील रूप परिणामों की व्युच्छिति हो जाती है। उससे असंख्यात संयमस्थानों के बीत जाने पर कषायकुशील परिणामों की व्युच्छिति हो जाती है। इसके आगे अकषाय स्थान को प्राप्त होकर निर्ग्रन्थ हो जाता है। वह निर्ग्रन्थ भी असंख्यात संयमस्थानों को प्राप्त कर व्युच्छिन्न हो जाता है। उसके बाद निर्ग्रन्थ (12 वें गुणस्थानवर्ती) तथा स्नातक (सयोगकेवली और अयोग केवली) एक स्थान को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। इनके संयमस्थान एक ही होता है, क्योंकि कषायों के अभाव में संयमस्थान नहीं होते। इस प्रकार इनके संयमलब्धि अनन्तगुणी होती है।
अध्याय 9
अभ्यास प्रश्न1. संवर किसे कहते हैं? 2. संवर के लिए कारण क्या है ? 3. तप से क्या-क्या होता है? 4. गुप्ति किसे कहते है ? .5.. पांचों समिति की परिभाषा लिखो? 6. दश धर्म का वणर्न करो? 7. बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन करो? 8. परीषह क्यों सहन करना चाहिए? 9. प्रज्ञा एवं अज्ञान परीषह क्यों होते हैं? 10. चारित्र मोहनीय के उदय से कौन-कौन से परीषह होते हैं? 11. चारित्र के कितने भेद है, तथा उसका वर्णन करो?
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