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________________ है, परन्तु उत्तरगुणों की कभी-कभी विराधना करता है, वह प्रतिसेवनाकशील । है। कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक के कभी भी व्रतों की विराधना नहीं होती, अत: ये प्रतिसेवना से रहित हैं। (4) तीर्थ :- सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पुलाक आदि मुनि होते हैं। (5) लिंग :- लिंग दो प्रकार का है-द्रव्यलिंग और भावलिंग। भावलिंग की अपेक्षा ये पाँचों ही निर्ग्रन्थलिंगी होते हैं, परन्तु द्रव्यलिंग की अपेक्षा भाज्य हैं, अर्थात् भाव की अपेक्षा पाँचों ही प्रकार के मुनि भावलिंगी सम्यग्दृष्टि निष्प्रमादी हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा पुलाक आदि भेद हैं। (6) लेश्या:- पुलाक मुनि के उत्तर की तीन (पीत, पद्म और शुक्ल) लेश्या होती हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील के छहों लेश्या होती हैं। कषाय कुशील और परिहारविशुद्धि वाले के उत्तर की चार (नील, पीत, पद्म, शुक्ल) लेश्या होती है) सूक्ष्मसाम्पराय, निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक शुक्ललेश्या ही होती है। अयोगशैल को प्रतिपन्न (अयोगकेवली) लेश्यारहित होते हैं। यद्यपि चतुर्थगुणस्थान के ऊपर शुभ तीन लेश्या ही कही हैं, फिर चार लेश्या मानना ठीक नहीं है, क्योंकि भावलिंगी मुनि छठे आदि गुणस्थान,में होते हैं, परन्तु छहों लेश्याओं का बकुश के जो वर्णन किया है, वह आर्तध्यान की अपेक्षा वर्णन किया है, कार्य में कारण का उपचार किया है। (7) उपपाद:- पुलाक का उत्कृष्ट रूप से उपपाद सहस्रार स्वर्ग में उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों तक है, अर्थात् पुलाक अठारह सागर की स्थिति वाले 12 वें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है। बकुश और प्रतिसेवनाकुशील का उत्कृष्ट रूप से आरण और अच्युतकल्प में 22 सागर की उत्कृष्टस्थिति में उपपाद होता है। कषायकुशील और निर्ग्रन्थ, सर्वार्थसिद्धि में तैंतीस सागर की स्थिति में उत्पन्न होते हैं। पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ, इन सभी का जघन्य रूप से सौधर्मस्वर्ग में दो सागर की आयु सहित देवों में उपपाद होता है। स्नातक के तो उसी भव से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। (8) स्थान :- कषाय के निमित्त से असंख्यात-संयमस्थान होते हैं। उनमें कषायकुशील और पुलाक के सर्वजघन्य लब्धिस्थान होते हैं। वे दोनों आगे 626 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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