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________________ उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अत्यन्त अनभिव्यक्त (नहीं के समान) हैं तथा जिनको अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होने वाली हैं उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं, अर्थात् वे निर्ग्रन्थ हैं। वा जिनके अतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह नष्ट हो चुके हैं, वे निग्रन्थ कहलाते हैं। (5) स्नातक:- घातियांकर्म के नाशक केवलज्ञानी स्नातक हैं। ज्ञानावरणीय घातिया कर्मों के नाश होने जाने से जिनके केवलज्ञानादि अतिशय विभूतियाँ प्रकट हुई हैं, जो योग सहित हैं, सम्पूर्ण शीलों के स्वामी हैं, वा शैल-पर्वत के समान अचल अडोल अकम्प हैं, लब्धास्पद (कृतकृत्य) हैं वे सयोगकेवली स्नातक कहलाते हैं। ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। दृष्टि रूप सामान्य की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ हैं; भूषा, वेष और आयुध से रहित निर्ग्रन्थरूप और शुद्ध सम्यग्दर्शन के कारण पुलाक आदि सभी मुनियों में निर्ग्रन्थता समान है, क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि हैं और भूषा, वेष, आयुध से रहित हैं, अत: इनमें निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग सकारण है। चारित्र गुणों की उत्तरोत्तर प्रकर्षता बनाने के लिये पुलाकादि का उपदेश है, अर्थात् चारित्र गुण का क्रमविकास और क्रमप्रकर्ष दिखाने के लिये इन पुलाकादि भेदों की चर्चा की है। पुलाकादि मुनियों में विशेषता संयतश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः। (47) They are fit to be described (differentiated) on the basis of differences in 1. Self - restraint. 2. Scriptural Knowledge. 3. Transgressions. 4. The period of Tirthanrara. 5. The sign. 624 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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