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और दूसरा प्रत्यक्ष प्रमाण। 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' - जिसके द्वारा जाना जावे उसे 'प्रमाण' कहते हैं; इस व्युत्पत्ति को आधार मानकर कितने ही दर्शनकार इन्द्रियों के तथा पदार्थों के साथ होने वाले उनके सन्निकर्ष को प्रमाण मानते परन्तु जैनदर्शन में जानने का मूल साधन होने के कारण ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है। इसके अभाव में इन्द्रियाँ और सन्निकर्ष अपना कार्य करने में असमर्थ रहते हैं।
हैं
परोक्ष प्रमाण का लक्षण
समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत् ।
पदार्थानां परिज्ञानं
गृहीत अथवा अगृहीत पर की प्रधानता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है उसे परोक्ष प्रमाण कहा गया है। जो ज्ञान पर की प्रधानता से होता है उसे 'परोक्ष प्रमाण' कहते है । पर के दो भेद है ( 1 ) समुपात्त और (2) अनुपात्त । जो प्रकृति से ही गृहीत है उसे समुपात्त कहते है, जैसे- स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा जो प्रकृति से गृहीत न होकर पृथक् रहता है उसे अनुपात्त कहते हैं, - जैसेप्रकाश आदि। इस तरह इन्द्रियादिक गृहीत कारणों से और प्रकाश आदि अगृहीत कारणों से जो ज्ञान होता है 'वह परोक्ष' प्रमाण कहलाता है।
प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण
इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षामुक्तमव्यभिचारि
तत्परोक्षमुदाहृतम् ।। (16)
च।
साकारग्रहणं
यत्स्यात्तत्प्रत्यक्षं प्रचक्ष्यते । (17)
इन्द्रियाँ और मन की अपेक्षा से मुक्त तथा दोषों से रहित पदार्थ का जो सविकल्पज्ञान होता है उसे प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं।
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साकार और अनाकार के भेद से पदार्थ का ग्रहण दो प्रकार का होता है जिसमें घटपटादिका आकार प्रतिफलित होता है उसे साकारग्रहण कहते हैं और जिसमें किसी वस्तु विशेष का आकार प्रतिफलित न होकर सामान्यग्रहण होता है उसे अनाकारग्रहण कहते हैं। साकार ग्रहण को ज्ञान और अनाकार ग्रहण को दर्शन कहते हैं। जिस ज्ञान में इन्द्रिय और मन की सहायता आवश्यक
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