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________________ दृतिनखकरनेत्रोत्पाटने तदिह कौतुकं गदितमुच्चैश्चेतसां श्रुते दृष्टि स्मृ या मुदस्तद्धि विज्ञेयं 604 Jain Education International यत् । रौद्रमित्थम् ॥ (8) आकाश जल और पृथ्वी के ऊपर संचार करने वाले प्राणियों के पीसने, जलाने, बांधने, काटने और प्राणघात करने में जो प्रयत्न करता है तथा उनका चमड़ा, नख, हाथ और नेत्रों के उखाड़ने में जो कुतूहल होता है उसे यहाँ मनस्वी जनों ने रौद्रध्यान कहा है। (ज्ञाना. पृ.425) जन्तुवधाद्युरूपराभवे । रौद्रं दुःखानलेन्धनम् ||10|| जीवों के वध आदि तथा उनके महान् पराजय के सुनने, देखने अथवा स्मरण होने पर जो हर्ष हुआ करता है उसे रौद्र ध्यान जानना चाहिए। वह रौद्र ध्यान दुःख रूप अग्नि के बढ़ाने में ईंधन के समान काम करता हैं। अहं कदा करिष्यामि पूर्ववैरस्य अस्य चित्रैर्वधैश्चेति चिन्ता रौद्राय (ज्ञाना. पृ. 426) इसके अनेक प्रकार के वध के द्वारा में पूर्व वैर का प्रतिकार कब करूँगा, इस प्रकार को चिन्तन भी रौद्रध्यान के लिए उसका कारण भूत माना गया है। किं कुर्मः शक्तिवैकल्याज्जीवन्त्यद्यापि विद्विषः । तर्ह्यमुत्र हनिष्यामः प्राप्य कालं तथा बलम् ।। (10+2 ) निष्क्रयम् । कल्पिता ।। (10+1) क्या करें, शक्ति की हीनता से शत्रु आज भी जीवित हैं। यदि वे इस समय नष्ट नहीं किये जा सकते हैं तो मर करके और तब बल को प्राप्त करके उन्हें अगले भव में नष्ट करेंगे, इस प्रकार का जो विचार किया जाता है वह रौद्रध्यान ही है। For Personal & Private Use Only हिंसोपकरणादानं क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम् । निस्त्रिंशतादिलिङ्गानि रौद्रे बाह्यानि देहिनाम् ।। (13) www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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