SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 617
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिस प्रकार ईंधन दावानल की ज्वाला को विस्तृत करता है, उसी प्रकार यह आर्तध्यान पापरूपअग्नि की ज्वाला को विस्तृत करता है। वह कृष्ण और नील आदि अशुभलेश्या के बल से वृद्धिंगत होता हैं । एतद्विनापि यत्नेन स्वयमेव अनाद्यसत्समुदूतसंस्कारादेव यह प्राणियों के बिना प्रयत्न के ही अनादि काल से उत्पन्न हुए दुष्ट संस्कार के वश स्वयं उपन्न होता है। अनन्तदुःखसंकीर्णमस्य क्षायोपशमिको इस ध्यान का फल अनन्त दुःखों से व्याप्त तिर्यंच गति की प्राप्ति हैं । यह क्षायोपशमिक भाव है और काल इसका अन्तर्मुहूर्त हैं। तिर्यग्गतिः प्रसूयते । देहिनाम् ॥ (39) 602 शङ्काशोकभयप्रमादकलहश्चिन्ताभ्रमोद्भ्रान्तय । उन्मादो विषयोत्सुकत्वमसकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमाः । मूर्च्छादीनि शरीरिणामविरतं लिङ्गानि बाह्यान्यलमार्ताधिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्याविर्णितानि स्फुटम् ॥ ( 41 ) शंका, शोक, भय, प्रमाद, झगडालु वृत्ति, चिन्ता, भ्रान्ति, व्याकुलता, पागलपन, विषयों की अभिलाषा, निरन्तर निद्रा, शरीर की जड़ता, परिश्रम और मूर्च्छा आदि ये उस आर्तध्यान से आक्रान्त मन वाले प्राणियों के निरन्तर बाह्य चिन्ह होते हैं जो स्पष्टतया पूर्णश्रुत के धारक गणधरों के द्वारा कहे गये हैं। रौद्रध्यान के भेद व स्वामी हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयो: । ( 35 ) Jain Education International फलम् । भाव: कालश्चान्तर्मुहूर्तकः ॥ ( 40 ) रौद्रध्यान Wicked concentration is of 4 kinds. हिंसानन्द Delight in humtfulness. अनृतानन्द Delight in falsehoods. स्तेयानन्द Delight in theft. विषयसंरक्षानन्द Delight in preservation of objects of sense For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy