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यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के होता है। असंयत सम्यग्दृष्टि पर्यन्त, अविरत, संयता- संयत और 15 प्रमाद सहित क्रिया का अनुष्ठान करने वाले प्रमत्तसंयतों के होते हैं ।
प्रमत्त संयतों के प्रमाद के उद्रेक से निदान आर्त्तध्यान को छोड़कर कदाचित् अन्य तीन आर्त्तध्यान होते हैं। क्योंकि निदान शल्य व्रतों के धातक है अर्थात् संयत के निदान नाम का आर्त्तध्यान नहीं हो सकता ।
ज्ञानार्णव: में कहा भी है
इत्थं चतुर्भिः प्रथितैर्विकल्पैरार्त समासादिह अनन्तजीवाशयभेदभिन्नं ब्रूते समग्रं यदि
हि प्रणीतम् । वीरनाथ: ॥ ( 35 ) ( ज्ञानार्णवः पृ. 420 )
इस प्रकार उत्त चार प्रसिद्ध भेदों के साथ यहाँ संक्षेप से आर्तध्यान को निरूपण किया गया है। वैसे जीव अनन्त तथा उनके अभिप्राय भी चूँकि अनन्त हैं, अतएव उक्त आर्तध्यान के भी अनन्त भेद हो जाते हैं। उनका यदि पूर्णरूप से कोई निरूपण कर सकता है तो वे वीर जिनेन्द्र ही कर सकते हैं, अन्य कोई छद्मस्थ उसका पूर्णतया निरूपण नहीं कर सकता है।
पर्यन्ते
रम्यमप्यग्रिमक्षणे |
अपथ्यमपि विद्ध्यसद्ध्यानमेतद्धि
षड्गुणस्थानभूमिकम् ॥ ( 36 )
यह असमीचीन आर्तध्यान यद्यपि प्रथम क्षण में रम्य प्रतीत होता है फिर भी वह परिणाम में अहितकारक ही है, यह जान लेना चाहिए। वह प्रथम छह गुणस्थानों में पाया जाता है।
संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भे प्रमत्तसंयतानां
तु
वह संयतासंयतों में
प्रथम पाँच गुण स्थानों में- उपर्युक्त चारों भेदों
संयुक्त रहता है । परन्तु प्रमत्तसंयत जीवों के वह निदानभेद से रहित शेष
तीन भेदयुक्त पाया जाता है।
कृष्णनीलाद्यसल्लेश्याबलेन दुरितदावार्चि:
इदं
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द निदानरहितं
प्रजायते । FareTT 11(37)
प्रविजृम्भते । प्रसूतेरिन्धनोपमम् ।। ( 38 )
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