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धरणीन्द्र के सेवने योग्य तो भोग और तीन भुवन को जीतनेवाली रूप साम्राज्य की लक्ष्मी तथा क्षीण हो गये हैं शत्रुओं के समूह जिसमें ऐसा राज्य और देवांगनाओं के नृत्य की लीला को जीतने वाली स्त्री, इत्यादि और भी आनंदरूप वस्तुयें मेरे कैसे हो, इस प्रकार के चिंतवन को परम गुणों को धारण करनेवालों ने भोगार्त्त नामा चौथा आर्त्तध्यान कहा है। और यह संसार की परिपाटी से हुआ है और संसार का मूल कारण भी है।
पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यज्जिनेन्द्रामराणाम् यद्वा तैरेव वांछत्यहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । पूजासत्कारलाभप्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पै: स्यादार्त्तं तन्निदानप्रभवमिह नृणां दुःखदावोग्रधाम ।। (35)
जो प्राणी पुण्याचरण के समूह से तीर्थंकरके अथवा देवों के पद की वांछा करें, अथवा उन ही पुण्याचरणों से अत्यन्त कोपके कारण शत्रुसमूहरूपी वृक्षों के उच्छेदनेकी वांछा करें तथा उन विकल्पों से अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, लाभादिक की यातना करें, उनको निदानजनित आर्त्तध्यान कहते हैं। यह ध्यान भी जीवों की दुःख रूपी अग्निका तीव्र स्थना है।
इष्टभोगादिसिद्धयर्थं
रिपुघातार्थमेव
यन्निदानं
मनुष्यों के इष्ट भोगादिक की सिद्धि के लिये तथा शत्रु के घात के लिये जो निदान हो, सो चौथा अर्त्तध्यान है ।
मनुष्याणां · स्यादार्त्तं
600
That
of the following stages of spirituality.
गुणस्थान:
अविरत Vowless i.e., in the first 4 stages.
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वा ।
तत्तुरीयकं ॥ ( 36 )
गुणस्थानों की अपेक्षा आर्तध्यान के स्वामी तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ( 34 )
painful concentration is possible only to a man in any
देशविरत With partial vows ie in the Sth stages.
प्रमत्तसंयत Monk with some carelessness i.e. in the 6th stages.
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