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________________ स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षण भवैर्यद्याकुलत्वं नृणां . तद्रोगार्त्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वारदुःखाकरं ॥(32) पृ.246 स.25 वातापित्तकफ के प्रकोप से उत्पन्न हुए शरीर को नाश करनेवाले वीर्य से प्रबल और क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले कास, श्वास, भगंदर, जलोदर, जरा, कोढ, अतिसार ज्वरादिक रोगों से मनुष्यों के जो व्याकुलता होती है उसे अनिंदित पुरुषों ने रोगपीडाचिन्तवन नामा आर्तध्यान कहा है। यह ध्यान दुर्निवार और दुःखों का आकार है, जो कि आगामी काल में पाप बन्ध का कारण है। स्वल्पानामपि रोगाणां माभूत्स्वप्नेऽपि संभवः। ममेति या नृणां चिंता स्यादात तत्तृतीयकम्॥(33) जीवों के ऐसी चिंता हो कि मेरे किंचित् भी रोग की उत्पत्ति स्वप्न में भी न हो ऐसा चिंतवना सो तीसरा आर्तध्यान है। . निदानं च। (33) The fourth monomania is: ForGra On being over anxious to enjoy worldly objects and not getting them in this world to repeatedly think of gaining them in future. . निदान नाम का चौथा आर्तध्यान है। निदान अप्राप्त की प्राप्ति के लिये होता हैं, इसमें पारलौकिक विषय-सुख की गृद्धि से अनागत अर्थ-प्राप्ति के लिये सतत् चिन्ता चलती रहती है। ज्ञानाणर्व में कहा भी हैभोगा भोगीन्द्रसेव्यास्त्रिभुवनजयिनी रूपसाम्राज्यलक्ष्मी राज्यं क्षीणारिचक्रं विजितसुखधूलास्यलीलायुवत्यः अन्यच्चानन्दभूतं कथमिह भवतीत्यादि चिन्तासुभाजां। यत्तद्भोगार्यमुत्तं परमगुणधरैर्जन्मसन्तानमूलं ॥(34) (ज्ञानार्णवः पृ.247) 599 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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