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वेदनायाश्च । (32)
The third monomania is: पीड़ाचिन्तवन on being affeicted by a disease or trouble to be repeatedly thinking of becoming free from it.
वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान
प्रकरण से दुःख-वेदना का बोध होता है। यद्यपि वेदना शब्द सुख, दुःख के अनुभव करने के विषय में सामान्य है तथापि यहाँ पर आर्तध्यान का प्रकरण होने से दुःख से वेदना का अवबोध होता है। उस वेदना का प्रतीकार करने के लिये तत्पर रहने वाले के धैर्य खोकर निरन्तर जो वेदना दूर करने का चिन्तन है, वह भी आर्तध्यान है।
पूर्वोपर्जित असाता वेदनीय के उदय से तथा अयोग्य आहार, विहार, आचार-विचार व वातावरण से विभिन्न शारीरिक, मानसिक रोग आ घेरते है। उन रोगों के कारण पीडा भी होती है। इस पीड़ा के कारण जीव बार-बार विचार करता है कैसे रोग दूर हो, मुझे कभी भी रोग नहीं हो। इसी प्रकार की चिन्ता से वह मानसिक रूप से और भी अधिक रोगी हो जाता है जिससे वह और भी अधिक शारीरिक और मानसिक रोगी हो जाता है। इतना ही नहीं इस आर्तध्यान से पाप कर्म का बंध होता है जिससे भविष्यत् काल के लिए भी शारीरिक, मानसिक, एवं आध्यत्मिक रोग के कारण भूत बीजों का संचय करता है। अभी मनोविज्ञान में सिद्ध हो गया कि रोग के बारे में चिन्ता करने से रोग बढ़ता है। रोग के बारे में चिन्ता न करके सत् साहित्य का अध्ययन, भगवान् का गुणगान, पूजन, स्तवन, ध्यान, प्रशस्त उदात्त मनोभाव से रोग दर होता है एवं प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। ज्ञानार्णव में इस ध्यान का वर्णन निम्न प्रकार से किया है
कासश्वासभगन्दरोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोप जनित रोगैः शरीरान्तकैः।
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