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________________ पुण्यबंध होता है एवं शुभभाव व ध्यान होता है वह भी मोक्ष के लिए परम्परा से कारणभूत बनते हैं। शुभभाव एवं शुभध्यान भी शुद्धभाव एवं शुक्लध्यान के लिए कारण बनते हैं। दिगम्बर जैनागम के श्रेष्ठतम सिद्धान्तशास्त्र जयधवल में वीर सेन स्वामी ने उपरोक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किये हैं सुह परिणाम पणालीए विणा एक्क सराहेणेव सुविसुध्द परिणामेण परिणमनासंभवादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। शुभ परिणाम की प्रणाली के बिना एक बार में ही सुविसुद्ध परिणाम रूप से परिणमन असम्भव है। इस प्रकार इस अर्थ का सद्भाव यहाँ पर स्वीकार किया गया है। परिणामों विसुद्धो पुव्वं पि अंतोमुहत्तप्पहुडि विसुन्झमाणो आगदो अणंतगुणाए विसोहीए। परिणाम विशुद्ध होता है तथा अन्तर्मुहूर्त पहले से ही अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होता हुआ आया हैं। विसुद्धो चेव परिणामो एदस्स होइ त्ति एदेण सुत्तावयवेण असुहपरिणामाणं वुदासं कादूण सुह-सुद्धपरिणामं चेव एत्थ संभवो त्ति जाणविदं ण केवलमेदम्मि चेव अधापवत्तरण चरिमसमए विसुद्ध परिमाणो एदस्स जादो किन्तु पुव्वं पि अधापवत्तकरण पारंभादो हेट्ठा अंतोनुहुत्तप्पहुडि खवग़सेठियाओग्ग विसोहीए पडिसमयमणंत गुणाए विसुज्झमाणो चेव आगदो।। चारित्र मोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ करने वाले जीव का परिणाम विशुद्ध ही होता है। इस प्रकार इस सूत्र वचन से अशुभ परिणामों का व्युदास करके शुभ-शुद्ध परिणाम ही यहाँ पर सम्भव है, इस बात का ज्ञान कराया गया है। केवल इसे अध: प्रवृत्त करके अन्तिम समय में ही इसका विशुद्ध परिणाम हो गया है, किन्तु अध: प्रवृक्तकरण के प्रारम्भ करने के पूर्व ही नीचे अन्तर्मुहूर्त से लेकर क्षपक श्रेणी के योग्य विशुद्धि का अवलम्बन लेकर प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ ही आया है। शुभ परिणाम शुद्ध परिणाम के कारण होने से बिना शुभ परिणाम के 592 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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