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________________ त्याग को बाह्योपधि व्युत्सर्ग कहते हैं अर्थात् इन्द्रिय विषयों का त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है। (2) अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग-क्रोधादि भावों की निवृत्ति अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा आदि अभ्यन्तर दोषों की निवृत्ति अर्थात् अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना, अभ्यन्तर उपधि का त्याग कहलाता है वा अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। काय (शरीर) के ममत्व का त्याग करना अभ्यन्तर उपधि का त्याग है। काय के ममत्व का त्याग दो प्रकार का है-नियतकाल और यावज्जीवन। घड़ी, घंटा आदि नियतकाल तक सामायिक आदि के समय शरीर के ममत्व का त्याग करना, कायोत्सर्ग करना नियतकाल है और समाधि आदि के समय जीवन पर्यन्त शरीर के ममत्व का त्याग करना यावज्जीवन त्याग है। ध्यान तप का लक्षण उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमन्तर्मुहूर्तात्। (27) ध्यानं Concentration is confining one's thought to hone particular object. In a man with a high class consitiuation of bone, nerves etc. i.e. the first 3 out of the 6 संहनन it lasts at the most for i.e. upto one अन्तर्मुहूर्त i.e. 48 minutes minus one समय। उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहर्त काल तक होता है। आदि के तीन संहनन उत्तम कहलाते हैं, अर्थात् वज्रवृषभ नाराच, वज्रनाराच और नाराच, ये तीन संहनन उत्तम कहलाते हैं। इन तीनों सहननों को उत्तम क्यों कहते हैं ? ध्यानादि में विशेष सहायक कारण होने से इनको उत्तम कहते है। इनमें मोक्ष का कारण तो एक आदि का वज्रवृषभ नाराच संहनन ही होता है, परन्तु ध्यान के कारण तो आदि के तीनों सहनन होते हैं। उत्तम संहनन जिसके है वह उत्तम संहनन है, उत्तम संहनन वाले के ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक होता है। चिन्ता-अन्त:करण का व्यापार है। अर्थात् पदार्थों में अन्तःकरण की वृत्ति-व्यापार 588 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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