SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 595
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करते हैं और गृहस्थ भी, सम्यग्दृष्टि भी और मिथ्यादृष्टि भी । इसलिए भी इन्हें बाह्य तप कहते हैं। कर्मों को जलाते हैं, भस्म करते हैं, इसलिए इनको तप कहते हैं। जैसे- अग्नि सञ्चित तृणादि ईंधन को भस्म कर देती है, जला देती है, उसी प्रकार ये तप मिथ्यादर्शन, अविरति कषाय आदि के द्वारा अर्जित कर्म रूप ईंधन को भस्म कर देते हैं, जला देते हैं, नष्ट कर देते हैं, इसलिए इनको तप कहते हैं । अथवा इन्द्रिय और शरीर को ताप देते हैं, इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति का निरोध करके अनशनादि तप शरीर और इन्द्रियों को तपा देते हैं इसलिये अनशनादि.. को तप कहते हैं। इन अनशनादि बाह्य तपों के द्वारा इन्द्रियों का निग्रह सहज हो जाता है। आभ्यान्तर तप प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । ( 20 ) The other i.e. Internal, ausrerities are also 6: 1. प्रायश्चित्त Expiation. 2. विनय Reverence. 3. वैयावृत्त Service (of the saints or worthy people). 4. स्वाध्याय Study. 5. व्युत्सर्ग Giving up attachment to the body etc. 6. ध्यान Concentration. प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छः प्रकार का आभ्यन्तर तप है। (1) प्रायश्चित्त तप :- प्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप है। (2) विनय तप:- पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। (3) वैय्यावृत्त्य तप:- शरीर की चेष्टा या दूसरे द्रव्यं द्वारा उपासना करना वैय्यावृत्त्य तप है। (4) स्वाध्याय तप :- आलस्य का त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय 580 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy