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________________ (2) अवमौदर्य- संयम को जागृत करने के लिये, दोषों को शांत करने के लिये, सन्तोष, स्वाध्याय एवं सुख की लि के लिये अवमौदर्य होता है। तृप्ति के लिये पर्याप्त भोजन में से चतुर्थ श ग दो चार ग्रास कम खाना अवमौदर्य है और अवमौदर्य का भाव या कर्म अवमौदर्य कहलाता है। (3) वृत्तिपरिसंख्यान- एक घर, सात घर, एक गली (एक मोहल्ला) अर्द्धग्राम आदि के विषय का संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। आशा तृष्णा की निवृत्ति के लिये भिक्षा को जाते समय साधु का एक, दो, तीन, सात आदि घर-गली, दाता, भोज्यपदार्थ आदि का नियम कर लेना वृत्तिपरिसंख्यान तप (4) रसपरित्याग- जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि, संयम में बाधा की निवृत्ति आदि के लिये घी, दूध, दही, गुड, नमक, तेल आदि रसों का परित्याग करना रसपरित्याग तप कहलाता है। (5) विविक्तशय्यासन-जन्तुबाधा का परिहार, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की सिद्धि के लिए निर्जन्तु, शून्यागार, गिरिगुफा आदि एकान्त स्थानों में शय्या (सोना) आसन (बैठना) विविक्तशय्यासन है। विविक्त (एकान्त) में सोने-बैठने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है, ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि होती है और गमनागमन का अभाव होने से जीवों की रक्षा होती है। (6) कायक्लेश- अनेक प्रकार के प्रतिमायोग (प्रतिमा के समान अचल, स्थिर रहना) धारण करना, मौन रखना, आतापन (ग्रीष्मकाल में सूर्य के सम्मुख खड़े रहना), वृक्षमूल (चातुर्मास में वृक्ष के नीचे चार महीना निश्चय बैठे रहना), सर्दी में नदी तट पर ध्यान करना आदि क्रियाओं से शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप हैं। ___ बाह्य द्रव्य की अपेक्षा होने से ये बाह्य कहलाते हैं अर्थात् ये अनशन आदि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा (आहारत्याग, स्वल्पाहार, घरों की संख्या नियत करना, रस छोड़ना आदि) अपेक्षा करके किये जाते हैं, इसलिए इन्हें बाह्य तप कहते हैं। ये तप दूसरों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय हैं तथा इन तपों को मुनीश्वर भी 579 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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