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पाँच प्रकार के संयमियों में से सामान्य-अभेदरूप से अथवा विशेष-भेद रूप से सर्व-सावध का सर्वथा परित्याग करने वाला जो जीव पाँच समिति
और तीन गुप्ति को धारण कर उनसे युक्त रहकर सदा सावध को त्याग करता है उस पुरुष को परिहारविशुद्धसंयमी कहते हैं। अर्थात् जो इस तरह से सावध से सदा दूर रहता है वह जीव पाँच प्रकार के संयमियों में तीसरे परिहारविशुद्धि संयम का धारक माना जाता है। इसी का विशेष रूप:
तीसं वासो जम्मे, वासपुधत्तं खु तित्थयरमूले।
पच्चक्खाणं पढिदो, संझूणदुगाउयविहारो॥(473)
जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सदा सुखी रहकर पुनः दीक्षा ग्रहण करके श्री तीर्थंकर भगवान के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व तक अध्ययन करने वाले जीव के यह संयम होता है। इस संयम वाला जीव तीन संध्या कालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस पर्यन्त गमन करता है रात्रि को गमन नहीं करता। और इसके वर्षाकाल में गमन करने का या न करने का कोई नियम नहीं है। सूक्ष्मसाम्पराय संयम वाले का स्वरूप :
अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो वा।
सो सुहुमसांपराओ, जहखादेणूणओ किंचि॥(474) जिस उपशमश्रेणी वाले अथवा क्षपकश्रेणिवाले जीव के अणुमात्र लोभ-सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त लोभकषाय के उदय का अनुभव होता है उसको सूक्ष्मसापराय संयमी कहते हैं। इसके परिणाम यथाख्यात चारित्रवाले जीव के परिणामों से कुछ ही कम होते हैं, क्योंकि यह संयम दशवें गुणस्थान में होता है और यथाख्यात संयम ग्यारवें से शुरू होता है। यथाख्यात संयम का स्वरूप:
उवसंते खीणे वा, असहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि। छदुमट्ठो व जिणो वा, जहखादो संजदो सोदु॥(475)
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