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________________ यथाख्यात संयम नियम से मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तदियकसायुदयेण य, विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं। विदियकसायुदयेण य, असंजमो होदि णियमेण ॥(469) . तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से विरताविरत = देशविरत : मिश्रविरत-संयमासंयम नाम का पाँचवाँ गुणस्थान होता है और दूसरी अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से असंयम (संयम का अभाव) होता है। सामायिक संयम का निरूपण: संगहिद सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्म। जीवो समुव्वंहतो, सामाइयसंजमो होदि॥(470) उक्त व्रतधारण आदिक पाँच प्रकार के संयम में संग्रहनय की अपेक्षा से एकयम-भेद रहित होकर अर्थात् अभेद रूप से "मै सर्व सावद्य का त्यागी हूँ" इस तरह से जो सम्पूर्ण सावध का त्याग करना इनको सामायिक संयम कहते हैं। यह संयम अनुपम है तथा दुर्लभ है और दुर्धर्ष है। इसके पालन करने वाले के सामायिक संयमी कहते हैं। छेदोपस्थापना संयम का निरूपण: छेतूण य परियायं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो, छेदोवट्ठावगो जीवो॥(471) प्रमाद के निमित्त से सामायिकादि से च्युत होकर जो सावध क्रिया के करने रूप सावध पर्याय होती है उसका प्रायश्चित विधि के अनुसार छेदन करके जो जीव अपनी आत्मा को व्रतधारणादिक पाँच प्रकार के संयमरूप धर्म में स्थापना करता है उसको छेदोपस्थापन संयमी कहते हैं। परिहारविशुद्धि संयमी का स्वरूप : पंचसमिदो तिगुत्तो, परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं। पंचेक्कजमो पुरिसो, परिहारयसंजदो सो हु॥(472) 576 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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