________________
संयम का लक्षण :
वदसमिदिकसायाणं, दंडाण तहिंदियाण पंचण्हं।
धारणपालणणिग्गहचागजओ संजमो भणिओ॥(465) अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील (ब्रह्मचर्य) अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का धारण करना ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग इन पाँच समितियों का पालना, क्रोधादि चार प्रकार की कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, कायरुप दण्ड का त्याग, तथा पांच इन्द्रियों का जय, इसको संयम कहते हैं। अतएव संयम के पांच भेद हैं। संयम की उत्पत्ति का कारण:
बादरसंजलणुदये, सुहुमुदये समखये य मोहस्स। __संजमभावो णियमा, होदि त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं ॥(466)
बादर संज्वलन के उदय से अथवा सूक्ष्म लोभ के उदय से और मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से नियम से संयमरुप भाव उत्पन्न होते हैं ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। इसी अर्थ को दो गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं
बादरसंजलणुदये, बादरसंजमतियं खु परिहारो। . पमदिदरे सुहुमुदये, सुहुमो संजमगुणो होदि॥(467) ___जो संयम के विरोधी नहीं है ऐसे बादर संज्वलन कषाय के देशघाति स्पर्धकों के उदय से सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि ये तीन संयम-चारित्र होते हैं। इनमें से परिहारविशुद्धि संयम तो प्रमत्त और अप्रमत्त में ही होता है, किन्तु सामायिक और छेदोपस्थापना प्रमत्तादि अनिवृत्तिकरणपर्यन्त होते हैं। सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त संज्वलन लोभ के उदय से सूक्ष्मसापराय गुणस्थानवर्ती संयम होता है।
जहखादसंजमो पुण, उवसमदोहोदिमोहणीयस्स। खयदो वियसोणियमा. होदित्ति जिणेहिं णिटिं।(468)
575
Jain Education International
For Personal Private Use Only
www.jainelibrary.org