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ये दो-2 भेद हैं। इसलिये चार पदार्थ हुए। तथा जीव और अजीव के ही आम्रव संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ये पांच भेद भी होते हैं। इसलिए सब मिलाकर नव पदार्थ हो जाते हैं।
उपरोक्त सप्त तत्त्व में से सुखार्थी सम्यक्दृष्टि मुमुक्षुजीवों के लिये कौन सा तत्त्व हेय, उपादेय, ग्रहणीय त्यजनीय है इसका कथन करते हुए अमृतचंद्र सूरि ने कहा है
उपादेयतथा जीवोऽजीवो हेयतयोदितः। हेयस्यास्मिन्नुपादानहेतुत्त्वेनासवः स्मृतः ॥(7) . . .
, (तत्वार्थ सार) हेयस्यादानरूपेण बन्धः स परिकीर्तित ; संवरो निर्जरा हेयहानहेतुतयोदितौ।
हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः॥(8) इन सात तत्त्वों में जीवतत्त्व उपादेयरूप से और अजीवतत्त्व हेय रूप से कहा गया है अर्थात् जीवतत्त्व ग्रहण करने योग्य और अजीव तत्त्व छोड़ने योग्य बतलाया गया है। छोड़ने योग्य अजीवतत्त्व के ग्रहण रूप होने से बन्ध तत्त्व का निर्देश हुआ है। संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व, अजीवतत्त्व के छोड़ने में कारण होने से कहे गये हैं और छोड़ने योग्य अजीवतत्त्व के छोड़ देने से जीव की जो अवस्था होती है उसे बतलाने के लिये मोक्ष तत्त्व दिखाया गया है। भावार्थ- जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। इनमें जीव उपादेय है
और अजीव छोड़ने योग्य है, इसलिये इन दोनों का कथन किया गया है। जीव अजीव का ग्रहण क्यों करता है? इसका ग्रहण करने से जीव की क्या अवस्था होती है, वह बतलाने के लिये बन्ध तत्त्व का निर्देश हैं। जीव अजीव का सम्बन्ध कैसे छोड़ सकता है, यह समझाने के लिये संवर और निर्जरा का कथन है तथा अजीव का सम्बन्ध छूट जाने पर जीव की क्या अवस्था होती है, यह बताने के लिये मोक्ष का वर्णन किया गया है। सात तत्त्वों में जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं और शेष पांच तत्त्व उन दो तत्त्वों के संयोग तथा वियोग से होने वाली अवस्था विशेष है।
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