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________________ (4) उष्ण परीषहजय चारित्र.की रक्षा करने के लिये दाह का प्रतीकार करने की इच्छा का अभाव होना, साम्यभाव से सहन करना उष्ण परीषह सहन है। (5) दंशमशक परीषहजय __ दंशमशक की बाधा सहन करना, उसका प्रतीकार नहीं करना, साम्यभाव से सहन करना दंशमशक परीषहजय कहलाता है। (6) नाग्न्य परीषहजय - जातरुप (जन्म-अवस्था के समान निराभरण, निर्वस्त्र, निर्विकार रूप) धारण करना नाग्न्य है। गुप्ति, समिति की अविरोधी परिग्रह निवृत्ति और परिपूर्ण ब्रह्मचर्य अप्रार्थिक मोक्ष के साधन चारित्र का अनुष्ठान करना यथाजात रूप है। अविकारी (शरीर), संस्कारों से रहित, स्वाभाविक, मिथ्यादृष्टियों के द्वारा द्वेषकृत होने पर भी परम माङ्गल्य ऐसी यथाजातरुप नाग्न्य अवस्था के धारक, स्त्री रूप को नित्य अशुचि, वीभत्स और शव-कंकाल के समान देखने वाले, वैराग्य भावनाओं से मनोविकार को जीतने वाले और सामान्य मनुष्यत्व के द्वारा असंभावित ऐसे विशिष्ट मानव रूपधारी साधुगणों के नाग्न्य दोषों (लिंगविकार, मनोविकार आदि दोषों) का स्पर्श नहीं होने से नान्य परीषह के जय की सिद्धि होती है। (7) अरति परीषहजय संयम से रतिकरना अरति परीषहजय कहलाता है। क्षुधा आदि की बाधा सताने पर संयम की रक्षा में, इन्द्रियों को बड़ी कठिनता से जीतने में, व्रतों के भले प्रकार पालन करने के भार की गुरूता प्राप्त होने पर, सदैव प्रमाद रहित परिणामों की सम्हाल करने में, भिन्न-भिन्न देशभाषाओं के नहीं जानने पर विरह और चपलप्राणियों से भरे भयानक मार्गों में अथवा राज्य के कर्मचारियों आदि से भयानक परिस्थिति में नियत रुप से एकाकी विहार करने आदि से जो अरति (खेद) उत्पन्न होती है उसे वे धैर्यविशेष से निवारण करते हैं। संयम विषयक रति (अनुराग) भावना के बल से विषय सुख रति को (विषयानुराग को) विषमिश्रित आहार के सेवन के समान विपाक में कटु मानने वाले उन परम संयमीजन के रति परीषह बाधा का अभाव होने से अरति परीषहजय होता है। 565 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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