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________________ • अदुःखभावितं ज्ञानं, क्षीयते दुःखसन्निधौ। तस्माथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः॥(102) स.त. बिना काय क्लेश के भावना किया गया आत्म स्वरुप का ज्ञान शारीरिक कष्ट आ जाने पर छूट जाता है। इस कारण आत्मध्यानी मुनि यथा-शक्ति परीषह सहन, तथा उपसर्ग सहन आदि शारीरिक कष्टों के साथ आत्म-चिन्तन ध्यान करें। विषयविरतिः संगत्यागः कषायविनिग्रहः,। . . शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपशचरणोद्यम। नियमितमनोवृत्तिर्भक्तिर्जिनेषु दयालुता,। .. भवति कृतिनः संसाराब्धस्तटे निकटे सति ॥(224) .. (आत्मानुशासन) इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, परिग्रह का त्याग, कषायों का दमन, राग-द्वेष की शान्ति, यम-नियम, इन्द्रिय दमन, सात तत्वों का विचार, तपश्चरण में उद्यम, मन की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण, जिन भगवान में भक्ति और प्राणियों पर दयाभाव, ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीव के होते हैं जिसके कि, संसार रुप समुद्र का किनारा निकट में आ चुका है। (1) क्षुधा परीषहजय प्रकृष्ट क्षुधारूपी अग्नि की ज्वाला को धैर्यरुपी जल से शान्तकरना, साम्यभाव से सहन करना है। (2) पिपासा परीषहजय __तृषा (प्यास) की उदीरणा के कारण मिलने पर भी प्यास के वशीभूत नहीं होना उस के प्रतीकार को नहीं चाहना, साम्यभाव से सहन करना पिपासा-सहन (3) शीत परीषहजय - शीत के कारणों के सन्निधान में शीत के प्रतीकार की अभिलाषा नहीं करना, संयम का परिपालन करना, साम्यभाव से सहन करना शीत परीषहजय कहलाता है। 564 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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