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(8) स्त्री परीषहजय -
वराङ्गनाओं के रुप देखना, उनका स्पर्श करना आदि के भावों की निवृति को स्त्री परीषहजय कहते हैं ।
(9) चर्या परीषहजय -
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गमन के दोषों का निग्रह करना चर्या परीषहजय कहलाता है। परिभ्रमण करने वाले साधुजन मार्ग में कठोर कंकड़ आदि से पैरों के कट जाने पर और छिल जाने पर भी खेद का अनुभव नहीं करते हैं, वा इन साधुओं को खेद का अनुभव नहीं होता है। पूर्व में अनुभव किए हुए उचित यान - वाहन आदि . का स्मरण नहीं करते हैं तथा सम्यक् प्रकार से गमन के दोषों का परिहार करते हैं, उन साधुओं के चर्या - परीषहजय होता है अर्थात् ऐसे साधु चर्या परीषहजयी होते हैं।
( 10 ) निषद्या परीषहजय
संकल्पित आसन से विचलित नहीं होना निषद्यापरीषहजय होता है। वीरासन, उत्कुटिकासन आदि जिस आसन से बैठते हैं, उस संकल्पित आसन से दूसरे आसन की पलटना नहीं करते, हिलना आदि आसन्न दोषों को जीतते हैं, उन परम संयमीजनों को निषद्या परीषहजय होता है अर्थात् वे ही साधु निषद्या परीषह के विजयी होते हैं।
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( 11 ) शयन परीषहजय -
आगम में कथित शयन से चलित नहीं होना, आगमांनुसार शयन करना
शयन परीषहजय कहलाता है। ( 12 ) आक्रोश परीषहजय
अनिष्ट वचनों को सहन करना आक्रोश परीषहजय है। तीव्र मोहाविष्ट, मिथ्यादृष्टि आर्य, म्लेच्छ, खल (दुष्ट) पापाचारी, मत्त ( पागल), उद्दृप्त (घमण्डी), शङ्कित आदि दुष्टजनों के द्वारा प्रयुक्त मा शब्द, धिक्कार शब्द, तिरस्कार अवज्ञा के सूचक कठोर, कर्कश, कानों को बधिर करने वाले, हृदय भेदी, हृदय में शूल के उत्पादक, क्रोधरूपी अग्नि की ज्वालाओं को बढ़ाने वाले और अप्रिय गाली आदि वचनों को सुनकर भी स्थिरचित्त रहने वाले, भस्म करने का सामर्थ्य होते हुए भी परमार्थ (तत्त्वविचार) में अवगाहित चित्तवाले, शब्द मात्र को श्रवण कर कटु शब्दों के अर्थ के विचार से पराङ्मुख,
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