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इस लोक की स्थिति को धिक्कार हो जहाँ पर देव, इन्द्र और महर्द्धिक देवगण भी अतुल सुख को भोगकर पुन: दुःखों के भोक्ता हो जाते
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णाऊण लोगसारं णिस्सारं दीहगमणसंसार।।
लोगग्गसिहरवासं झाहि पयत्तेण सुहवासं॥(721) ___ बहुत काल तक भ्रमण रूप संसार निस्सार है। ऐसे इस लोक के स्वरूप को जानकर सुख के निवास रूप लोकाग्रशिखर के आवास का प्रयत्नपूर्वक ध्यान करो।
(11) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा:- एक निगोदशरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थावर जीवों से सब लोक निरन्तर भरा हुआ है। अत: इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुकाके समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की काणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। उसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है, इसलिए जिस प्रकार चौथपर रत्नराशिका प्राप्त होना अति कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्यायका प्राप्त होना भी अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जाने पर पुन: उसकी उत्पत्ति होना इतना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्ष के पुद्गलों का पुन: उस वृक्ष पर्याय रूप से उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् इसकी पुन: प्राप्ति हो जाये तो देश कुल, इन्द्रियसम्पत् और निरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अतिकठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषयसुख में रममाण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित विषय सुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधिका प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है ऐसा विचार
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