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जिसके सर्वकर्म निर्जीर्ण हो चुके हैं ऐसा जीव जन्म-जरा-मरण के बन्धन से छूटकर अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है। अत: मन में तुम उस निर्जरा का चिन्तवन करो।
(10) लोकानुप्रेक्षा- चारों ओर से अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्यदेश में स्थित लोक के संस्थान आदि की विधि पहले तृतीय अध्याय में कह आये हैं। उसके स्वभावका अनुचिन्तन लोकानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले इसके तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है।
लोओ अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिप्पण्णो। जीवाजीवेहिं भुडो णिच्चो तालरुक्खसंठाणो॥(714)
(मू.चा.पृ.14) निश्चय से यह लोक अकृत्रिम, अनादि-अनन्त, स्वभाव से सिद्ध, नित्य और तालवृक्ष के आकार वाला है तथा जीवों और अजीवों से भरा हुआ है।
तत्थणुहवंति जीवा सकम्म णिव्वत्तियं सुहं दुक्खं।
जम्मणमरणपुणब्भवमणंतभवसायरे भीमे॥(717)
इस लोक में जीव. अपने कर्मों द्वारा निर्मित सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। भयानक अनन्त भव समुद्र में पुन: पुन: जन्म-मरण करते हैं।
मादा य. होदि धूदा धूदा मादुत्तणं पुण उवेदि।
पुरिसो वि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जए॥(718) ___माता पुत्री हो जाती है और पुत्री माता हो जाती है। यहाँ पर पुरुष भी स्त्री और स्त्री भी पुरुष तथा पुरुष भी नपुंसक हो जाता है। ..' होऊण तेयसत्ताधिओ दु बल विरियरूवसंपण्णो।
जादो वच्चघरे किमि धिगत्थु संसारवासस्स ॥(719) प्रताप और पराक्रम से अधिक तथा बल, वीर्य और रूप से सम्पन्न होकर भी राजा विष्ठागृह में कीड़ा हो गया। अत: संसारवास को धिक्कार हो। - धिग्भवदु लोगधम्मं देवा वि य सुरवदीय महड्ढीया।
भोत्तूण सुक्खमतुलं पुणरवि दुक्खावहा होंति॥(720)
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