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सामाग्गिंदियरूवं मदिजोवणजीवियं बलं तेजं । गिहसयणासणभंडादिया अणिच्चेति चिंतेज्जो ।। (696)
सामग्री, इन्द्रियाँ, रूप, बुद्धि यौवन, जीवन, बल, तेज, घर, शयन, आसन और बर्तन आदि सब अनित्य हैं ऐसा चिन्तवन करें ।
(2) अशरणानुप्रेक्षा - जिस प्रकार एकान्त में क्षुधित और मांसके लोभी बलवान व्याघ्र के द्वारा दबोचे गये मृगशावक के लिए कुछ भी शरण नहीं होता उसी प्रकार जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि आदि दुःखों के मध्य में परिभ्रमण करने वाले जीवका कुछ भी शरण नहीं है। परिपुष्ट शरीर ही भोजन के प्रति सहायक है, दुःखों के प्राप्त होने पर नहीं । यत्न से संचित किया हुआ धन भी भवान्तर में साथ नहीं जाता। जिन्होंने सुख और दुःख को समान रूप से बाँट लिया है ऐसे मित्र भी मरण के समय रक्षा नहीं कर सकते। मिलकर बन्धुजन भी रोग से व्याप्त इस जीवकी रक्षा करने में असमर्थ होते हैं । यदि सुचरित धर्म हो तो वही दुःखरूपी महासमुद्र में तरने का उपाय हो सकता है। मृत्यु से ले जाने वाले इस जीव के सहस्रनयन इन्द्र आदि भी शरण नहीं हैं, इसलिए संसार में विपत्तिरूप स्थान में धर्म ही शरण है। वही मित्र है और वही कभी भी न छूटनेवाला अर्थ है, अन्य कुछ शरण नहीं है इस प्रकार की भावना करना अशरणानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले इस जीवके 'मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारणभूत पदार्थों ममता नहीं रहती और वह भगवान् अरहंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग में ही प्रयत्नशील होता है।
हयगयरहणरबलवाहणाणि मंतोसधाणि विज्जाओ ।
मच्चुभयस्स ण सरणं णिगडी णीदी य णीया य || (697) ( पू. पृ. 4) घोड़ा, हाथी, रथ, मनुष्य, बल, वाहन, मन्त्र, औषधि, विद्या, माया, नीति और बन्धुवर्ग ये मृत्यु के भय से रक्षक नहीं हैं।
मरणभय उवगदे देवा वि सइंदया ण तारंति । धम्मो ताणं सरणं गदित्ति चिंतेहि सरणत्तं ।। (699)
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