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आत्म भावना की प्रधानता को स्वीकार किया हैं ।
वदन्नपि
यावत्तावन्न
श्रृण्वन्नप्यन्यतः कामं नात्मानं भावयेद्भिन्नं
पढ़ाने वाले, शास्त्र सुनाने वाले या उपदेशक आदि अन्य व्यक्ति से खूब अच्छी तरह आत्मा का स्वरूप सुनकर भी और दूसरों को आत्मा का स्वरूप अपने मुख से कहता हुआ भी जब तक शरीर से अलग अपने आत्मा की भावना न करे तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता है।
कलेवरात् ।
मोक्षभाक् ॥ (81)
उस ही प्रकार अपने आत्मा को शरीर से हटा करके ऐसे अपने ही आत्मा में भावना करें या चिन्तन या मनन करना चाहिए, जैसे कि, फिर आत्मा को शरीर से स्वप्न में भी न तन्मय करा सकें या शरीरमय समझ सकें।
तथैव
भावयेद्देहाद्व्यावृत्यात्मानमात्मनि ।
यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ।। (82)
(1) अनित्यानुप्रेक्षा- ये समुदायरूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल के बुलबुले के समान अनवस्थित स्वभाव वाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्थाविशेषों में सदा प्राप्त होने वाले संयोगों से विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है। इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस भव्यके उन शरीरादि में आसक्तिका अभाव होने से भोगकर छोड़े हुए गन्ध और भाला आदि के समान वियोग काल में भी सन्ताप नहीं होता है।
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स्थान, आसन, देव, असुर तथा मनुष्यों के वैभव, सौख्य, -पिता- - स्वजन का संवास तथा उनकी प्रीति ये सब अनित्य हैं।
माता
ठाणाणि आसणाणि य देवासुरइड़िढमणुयसोक्खाई। मादुपिदुसयणसंवासदा य पीदी वि य अणिच्चा ।। (695) भाग -2 ( मू. पृ. 2)
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