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________________ से नहीं भाने के कारण उसकी भावना होना सरल सहज नहीं हैं इसलिए इस प्रकार की भावना बार-बार भानी चाहिए, क्योंकितब्रूयात्तत्परान्पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो सोनपरो भवेत्। येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥(53) (स.त.) आत्मा श्रद्धालु को वह आध्यात्मिक चर्चा करनी चाहिए वह आत्मा सम्बंधी ही बातें अन्य विद्वानों से पूछनी चाहिए, उसी आध्यात्मिक विषय की चाह रखनी चाहिएं उसी आध्यात्मिक विषय में सदा तत्पर तैयार या उत्सुक रहना चाहिए जिसमें अपनी आत्मा का अज्ञान भाव छोड़कर ज्ञान भाव प्राप्त हो। मनोविज्ञानिक सिद्धान्त हैं कि, जहां पर बुद्धि लीनता को प्राप्त होती है वहाँ पर श्रद्धा एवं भावना भी होती हैं। इसलिए स्वस्वरूप एवं सत् स्वरूप में बुद्धि में लगाने के लिए बार-बार भावना करनी चाहिए। यत्रैवाहितधी: पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते। यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते॥(95) मनुष्य की जिस विषय में ही बुद्धि लगी रहती है उस ही विषय में मनुष्य की रूचि उत्पन्न हो जाती हैं और जिस ही विषय में रूचि उत्पन्न हो जाया करती है उस ही विषय में मन लीन हो जाता है, रम जाता है। यत्रानाहितधीः पुंसः श्रद्धा तस्मान्निवर्त्तते। यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः ।।96।। ___ मनुष्य की जहाँ बुद्धि नहीं ठहरती - नहीं लगती उस विषय से उसकी रूचि निवृत्त हो जाती है - यानी उत्पन्न नहीं होती और जिस विषय से मनुष्य की रूचि हट जाती है उस मनुष्य की तल्लीनता उस विषय में कहां से आ सकती है? अर्थात् नहीं हो सकती। जब तक पुन: पुन: भावना नहीं की जाती है मात्र स्वाध्याय करते हैं और आत्मा के विषय में श्रवण करते हैं तब तक आत्मा का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता है और मोक्ष भी नहीं हो सकता इसलिए पूज्यपाद स्वामी Jain Education International 543 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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