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________________ मरण भय के आ जाने पर इन्द्र सहित भी देवगण रक्षा नहीं कर सकते हैं। धर्म ही रक्षक है, शरण है और वही एक गति है। इस प्रकार से अशरणपने का चिन्तवन करो। (3) संसारानुप्रेक्षा- कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या और लड़की होती है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उस प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूप से संसार के स्वाभावका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए संसार के दुःख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है। मिच्छत्तेणाछण्णो मग्गं जिनदेसिदं अपेक्खंतो। भमिहदि भीमकुडिल्ले जीवो संसारकंतारे ॥(705) (मू.पृ.7) मिथ्यात्व से सहित हुआ जीव जिनेन्द्र कथित मोक्षमार्ग को न देखता हुआ भयंकर और कुटिल ऐसे संसार-वन में भ्रमण करता है। तत्थ जरामरणभयं दुक्खं पियविप्पओग बीहणयं। अप्पियसंजोगं वि य रोगमहावेदणाओ य॥(708) (पृ.11) संसार में जरा और मरण का भय, इष्ट का वियोग, अनिष्ट का संयोग और रोगों से उत्पन्न हुई महावेदनाएँ ये सब भयंकर दुःख हैं। (4) एकत्वानु प्रेक्षा- जन्म, जरा और मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन व्याधि, जरा और मरण आदि दुःखों को दूर नहीं करता। बन्धु 546 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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