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________________ बड़वाल तृप्त नहीं हो सकता, शांत नहीं हो सकता है। इस आशा रूपी दुष्पुर गड्डे को कौन पूर्ण कर सकता है ( कौन भर सकता है ?) अर्थात् इसका भरना बहुत कठिन है । प्रतिदिन जो-जो वस्तु आशा की पूर्ति के लिए आशाग में डाली जाती है त्यों-त्यों यह गड्डा विशेष गहरा होता जाता है। शरीर आदि में ममत्व करने वाले के संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है। वह संसार से छूट नहीं सकता। (9) उत्तम आकिञ्चन्य:- 'यह मेरा है' इस प्रकार की अभिसन्धि का त्याग करना आकिञ्चन्य है । उपात्त (जन्म से एक क्षेत्रावगाही) जो शरीर आदि परिग्रह है, उनमें संस्कार और राग आदि की निवृत्ति के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार के. अभिप्राय का त्याग करना आकिञ्चन्य कहलाता है। 'जिसके वह कुछ नहीं है' वह अकिञ्चन है और अकिञ्चन के भाव कर्म को आकिञ्चन्य कहते है। ( 10 ) उत्तम ब्रह्मचर्य :- अनुभूत अंगना का स्मरण, उसकी कथा श्रवण, स्त्री संसक्त, शयनासन, आदि का त्याग करना बह्मचर्य व्रत है। 'मैंने उस कलागुण विशारदा स्त्री को भोगा था' इस प्रकार का चिन्तवन अनुभूताङ्गनास्मरण है। ललना सम्बन्धि वार्ताओं को रूचिपूर्वक सुनना तत्कथा श्रवण है। रतिकालीन गन्ध द्रव्यों की सुवास से सुवासित और स्त्रियों से संशक्त शय्या, आसन, स्थान, स्त्री संसक्त शय्यासन है। इन अनुभूतांगनास्मरण, स्त्री संसक्त, तत्कथा श्रवण, शय्या आसन, स्थान आदि का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले मानवों को हिंसादि दोष स्पर्श नहीं करते हैं अर्थात् उन्हें हिंसादि दोष नहीं लगते हैं। नित्य गुरुकुल में रहने वाले ब्रह्मचारी को सर्व गुण रूपी सम्पदाएँ सहज प्राप्त हो जाती हैं। स्त्री विलास विभ्रम आदि का शिकार हुआ प्राणी पापों का भी शिकार बन जाता है। अर्थात् वनिताओं के वशीभूत हुआ प्राणी हिंसादि सर्व पापों में प्रवृति करने लग जाता है, क्योंकि इस लोक में इन्द्रियों की पराधीनता ही प्राणियों को अपमान दात्री है ( अपमान, तिरस्कार करने वाली है) इस प्रकार उत्तम क्षमादि दस धर्मो के गुणों का और इन धर्मो के प्रतिपक्षी धादि के दोषों का विचार करने पर क्रोधादि की निवृत्ति हो जाती है। क्रोधादि 538 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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