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________________ करने के लिए प्राणियों की पीड़ा का परिहार है और इन्द्रिय के विषयों से विरक्त होना है, उसे संयम कहते हैं। यह संयम प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो प्रकार है। (1) प्राणि संयम:- एकेन्द्रियादि प्राणियों की पीड़ा का परिहार करना, एकेन्द्रियादि जीवों का वध नहीं करना प्राणी संयम है। (2) इन्द्रिय संयम:- शब्दादि के विषयों में राग नहीं करना, अति आसक्ति नहीं रखना, इन्द्रिय विषयों का त्याग करना इन्द्रिय संयम है। यह संयम आत्मा का हित करने वाला है। संयमी मानव इस लोक में पूजित होता है, परलोक की तो बात ही क्या ? अर्थात् संयमी पर लोक में महान बनता ही है। असंयमी जन निरन्तर हिंसादि पापों में तथा पंचेन्द्रिय विषय में प्रवृत्ति करके अशुभ कर्मों का संचय करते हैं। जिससे इह लोक और परलोक में दुःखी होते हैं। (7) उत्तम तप:- कर्मों का क्षय करने के लिए जो तपा जाता है, वह तप कहा जाता है। तप सर्व अर्थों का साधन है। तप से सर्व कार्यों की सिद्धि होती है। तप से ही अणिमा, महिमा आदि सर्व ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। तपस्वियों की चरण-रंज से पवित्र स्थान लोक में तीर्थता को प्राप्त हो जाते हैं। जिसके तप नहीं है, वह तृण से भी लघु कहलाता है। तपहीन मानव घास-फूस से भी हीन है। तपोबल से हीन मानव को गुण छोड़ देते हैं, उसके हृदय में गुणों का वास नहीं रहता तथा वह संसारवास से नहीं छूट सकता। सदा संसार में परिभ्रमण करता रहता है। (8) उत्तम त्यागः- परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं। सचेतन-हाथी, घोड़ा, स्त्री, नौकर आदि और अचेतन-धन-धान्य, सोना, चांदी आदि परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं। परिग्रह का त्याग करना ही आत्मा का हित (कल्याण) है। जैसे-जैसे आत्मा परिग्रह से रहित होता है, परिग्रह का त्याग करता है, वैसे-वैसे इसके खेद (दुःख) के कारण हट जाते हैं। परिग्रह की व्याकुलता रहित मन में उपयोग की एकाग्रता होती है और पुण्य कर्म का सञ्चय होता है। परिग्रह की आशा बड़ी बलवती है और सर्व दोषों की उत्पत्ति का स्थान है। जैसे-पानी से समुद्र का बड़वानल शान्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार संसारिक पदार्थों से आशारूपी 537 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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