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जाने के कारण अवस्थान का अभाव होने से पूर्वोपार्जित कर्मों का झड़ जाना, हो अर्थात् नष्ट हो जाना ही निर्जरा है।।
वह निर्जरा दो प्रकार की है - विपाकजा और अविपाकजा। अनेक जातिविशेष से उद्वेलित चार गति रूप संसार महासमुद्र में चिरकाल से परिभ्रमण करने वाले प्राणी के शुभाशुभ कर्मों का औदयिक भावों से उदयावलि स्त्रोत से क्रम से यथाकाल प्रविष्ट होकर जिसका साता-असाता वा अन्यतर जिस रूप से बन्द हुआ है, उसका उस रूप में स्वाभाविक फल देकर स्थिति समाप्त करके निवृत हो जाना, उदययागत कर्म का परिमुक्त होकर विनाश को प्राप्त हो जाना ही विपाकजा निर्जरा है। जो कर्म विपाककाल को प्राप्त नहीं हुए हैं, अर्थात् जिन कर्मों का अभी उदयकाल नहीं आया है, उन्हें भी औपक्रमिक क्रिया (तप) विशेष के सामर्थ्य से अनुदीर्ण कर्मों को भी बलात् उदयावलि में लाकर पका देना, उदयावलि में लाकर उनका अनुभव करना, अविपाक निर्जरा है, जैसे कि, कच्चे आम, पनस आदि फलों का प्रयोग से पका दिया जाता है। ____निमित्तान्तरों के समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय के दूसरे सूत्र में कहा है 'तपसा निर्जरा च' तप से निर्जरा होती है, अत: 'च' शब्द से संवर के प्रकरण में कहे जाने वाले 'तप' का संग्रह हो जाता है। अर्थात् कर्म फल देकर भी झड़ जाते हैं और तप से भी।
ये कर्मप्रकृतियाँ घाती और अघाती के भेद से दो प्रकार की हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म घातियां हैं और वेदनीय, आयु, नाम
और गोत्र, ये अघातियां कर्म हैं। सर्वघाती और देशघाती के भेद से घातियां कर्म दो प्रकार का है। उनमें केवलज्ञानावरणीय, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, सत्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, केवलदर्शनावरण, अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये बारह कषाय और दर्शनमोहनीय (मिथ्यात्व), ये बीस प्रकृतियां सर्वघाती हैं। ज्ञानावरण के चार (मति, श्रुत, अवधि और मन :पर्यय ज्ञानावरण), दर्शनावरण की चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनावरण, ये तीन, अन्तराय पाँच (दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-शक्ति की बाधक), संज्वलन कषाय
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