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________________ का कारणवश दो प्रकार से होता है- स्वमुख से और परमुख से। सर्व मूल कर्मप्रकृतियों का विपाक तो स्वमुख से ही होता है, परन्तु उत्तर कर्मप्रकृतियों में आयु, दर्शनमोह और चारित्रमोह को छोड़कर शेष सजातीय प्रकृतियों का विपाक परमुख से भी होता है और स्वमुख से भी। क्योंकि नरकायु अपने स्वमुख (नरकायुरूप) से ही फल देती है, तिर्यञ्चायु मनुष्यायु वा देवायु रूप से नहीं। दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय रूप से वा चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय रूप से फल नहीं दे सकती , अत : आयु, दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय कर्म का विपाक स्वमुख से ही होता है। स यथानाम। (22) That fruition is according to the name of the karma e.g. ज्ञानावरणीय Knowledge - obscuring karma prevents the acquisition of knowledge and so on. ____ वह जिस कर्म का जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है। ज्ञानावरणादि कर्मों के नामानुसार ही फल प्राप्त होता है। जैसे-ज्ञानावरण का फल-विपाक ज्ञान का अभाव है, दर्शनावरण कर्म का विपाक दर्शन-शक्ति का उपरोध है। सुख-दु:ख का अनुभव कराना वेदनीय का फल-विपाक है। आत्मा को मोहित करना मोहनीय का कार्य है। भव में रोककर रखना आयु का काम है। अनेक प्रकार से शरीर की रचना करना अर्थात् 'आसमन्तात् एति इति आयु', नरकादि पर्यायों को प्राप्त कराने वाली आयु है। नामकरण वा आकारविशेष कारक नाम है। उच्च-नीच का व्यवहार करने वाला गोत्र और दाता एवं पात्र के मध्य में विघ्नकारक अन्तराय है। इस प्रकार सर्व प्रकृतियों के सर्व विकल्पों के अनुभाग का ज्ञान अपने-अपने अन्वर्थ नाम के अनुसार होता है। फल दे चुकने के बाद क्या होता है ? ततश्च निर्जरा। (23) After that fruition the karmas fall off. इसके बाद निर्जरा होती है। पूर्वोपार्जित कर्मों का झड़ जाना ही निर्जरा है। आत्मा को सुख वा दु:ख देकर खाये हुए औदनादि (भातादि) आहार के मल की तरह स्थिति के क्षय हो 510 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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