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________________ शरीर की कान्ति को आदेय मानेंगे तो सर्व संसारी जीवों के शरीर की. प्रभा में अविशेषता का प्रसंग आयेगा क्योंकि वह सर्व संसारी जीवों में साधारण है अतः आदेय नामकर्म के उदय से होने वाला लावण्य एवं सौन्दर्य पृथक् है। 40) यशस्कीर्ति नामकर्म :- पुण्यगुणख्यापन (प्रसिद्धि) में कारण कर्म यशस्कीर्ति नामकर्म है। पुण्य गुणों का ख्यापन जिस कर्म के उदय से होता है, उसको यशस्कीर्ति नामकर्म जानना चाहिए। प्रश्न :- यश और कीर्ति इन दोनों में अविशेषता होने से यशस्कीर्ति कहना पुनरक्त दोष है। उत्तर:- यश का अर्थ गुण है और कीर्ति का अर्थ विस्तार है। अर्थात् जो गुणों का विस्तार करे, वह यशकीर्ति है अतः यश और कीर्ति दोनों ___ एकार्थवाची नहीं है। 41) अयशस्कीर्ति नामकर्म :- यशस्कीर्ति से विपरीत पाप दोषों को ख्यापन करने वाली अर्थात् अपयश को विस्तरित करने वाली अयशस्कीर्ति है। 42) तीर्थंकर नामकर्म :- आर्हन्त्य पद की कारणभूत तीर्थकर कर्म प्रकृति है, जिसके उदय से अचिन्त्य विशेष विभूतियुक्त आर्हन्त्य पद प्राप्त होता है, उसको तीर्रकर नामकर्म प्रकृति समझना चाहिए। ___ (तत्त्वार्थवार्तिके, पृ.न. 481) गोत्रकर्म के भेद उच्चैर्नीचैश्च। (12) गोत्रकर्म Family. - determining karma is of 2 kinds: 1. उच्चगोत्र High. 2. नीच गोत्र Low. उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये दो गोत्रकर्म हैं। . उच्च और नीच ये दो विशेषण होने से गोत्र कर्म दो प्रकार का हैउच्च गोत्र, नीच गोत्र। (1) उच्च गोत्र - जिसके उदय से लोकपूजित कुल में जन्म होता है, वह उच्च गोत्र है। जिस कर्म के उदय से लोकपूजित महत्त्वशाली इक्ष्वाकुवंश, 503 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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